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तुमुल कोलाहलों में / यतींद्रनाथ राही

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साँझ के घन कुन्तलों के
मोह में
बाँधो न इतना
मैं दहकती मोर का
सूरज उगाने जा रहा हूँ
स्वप्न-जालों का घना कोहरा
स्वयं होगा तिरोहित
मैं निषा का घर
सितारों से सजाने आ रहा हूँ
मिल रहा है दूर से
आकाशगंगा का निमन्त्रण
एक नन्ही तारिका ने
स्वस्तिका वाचन किया है।

कल
किसी स्वर्णिम षिखर पर
ज्योति का दिनमान होगा
है सुनिष्चित
फिर किसी
सतकर्म का यश-गान होगा
टूटना गिरना-बिखरना
सृष्टि की षाष्वत नियति है
देखना है पर कहाँ
कितनी सुमति कितनी कुमति है
देखता हूँ मैं
किसी संघर्शरत
गतिमय चरण ने
एक नव-युग-क्रांति का
संकल्पयुत ज्ञापन दिया है।

शब्द के ही तो उड़े हैं
अन्तरिक्षों में कबूतर
रेशमी आष्वस्तियों में ही
रहे अब तक उलझकर
हो रहे हैं तन्त्र के
नवकल्प से संकल्प गुंजित
तुम, हलाहल के लिये तो
मत करो यह सिन्धु मंथित
जो मिला है
प्यार से ही बाँह में
हमने समेटा
षिवम् के हित ही सदा से
शक्ति-आराधन किया है।