जब दृवित होकर फटी
छाती
किसी पाषाण की
फूट कर जो बह गयी
थी काव्य की रसधार।
इस शतक के
प्रथम पद पर
गीत का पहला चरण
भोर के स्वर्णिम क्षितिज पर
ज्योति का मंगल वरण
स्वप्न-बीथी से उतर कर
रूप की परछाइयाँ
ले गयी जैसे उठाकर
गगन की ऊँचाइयाँ
वे अबोले क्शण
अजाने गात
पुलकित धड़कने
झनझना कर
बज उठा था
प्राण का हर तार।
गाँव की अमराइयों से
दूर हिमगिरि के शिखर
घाटियों के, वेकछारों के
दिवस कितने प्रहर
वह दिगन्तों में भरी बिखरी
अमित रमणीयता
स्वर्ण रष्मिल हिम शिखर की
दिव्य अनुपम भव्यता
सिन्धु में तिरता रहा
उड़ता रहा आकाश में
आधियाँ झेली बहुत हैं
बहुत भोगे ज्वार!
पथ अनन्तिम नाव खण्डित
और टूटे सेतु हैं
जा रहे हैं हम कहाँ
किस छोर पर किस हेतु हैं?
मैं नहीं हूँ
तुम नहीं हो
और कोई भी नहीं
पर बुलाता है मुझे
वह दूर से कोई कहीं
छोड़ दो पतवार सारे
डूब जाने दो मुझे
खोजना है
सीपियों के
सम्पुटों में सार!