Last modified on 11 फ़रवरी 2018, at 17:26

और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी / वंदना गुप्ता

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:26, 11 फ़रवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वंदना गुप्ता |अनुवादक= |संग्रह=बद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

अपनी अपनी हदों में चिने हमारे वजूद
जब भी दखल करते हैं
हदों की खामोशियों में
एक जंगल चिंघाड उठता है
दरख्त सहम जाते हैं
पंछी उड जाते हैं पंख फ़डफ़डाते
घोंसलों को छोडना कितना दुरूह होता है
मगर चीखें कब जीने की मोहताज हुयी हैं
शब्दों के पपीहे कुहुकना नहीं जानते
शब्दों का अंधड हदों को नागवार गुजरता है
तो तूफ़ान लाज़िमी है
फिर सीमायें नेस्तनाबूद हों
या अस्तित्व को बचाने का संकट
हदों के दरवाज़ों पर चोट के निशाँ नहीं दिखते
गहरी खामोशियों की सिलवटों पर
केंचुये रेंग रहे होते हैं अपनी अपनी सोच के
और करा जाते हैं अपनी अपनी उपस्थिति दर्ज
अपने अपने दंभ की नालियों में सडकर
क्षणिक नागवारियाँ, क्षणिक कारगुज़ारियाँ
काफ़ी होती हैं जंगल की आग को हवा देने के लिये
और तबाहियों की चटाइयों पर काले काले निशान
जलते शीशमहल की आखिरी दीवार का
कोई आखिरी सिरा खोज रहा होता है
मगर जुनूनी ब्लोटिंग पेपर ने नमी की स्याहियों को सोख लिया होता है
फिर निर्जीव हदों की तासीर कैसे ना अपनी आखिरी साँस को मोहताज़ हो???

सितारों से आगे कोई आस्माँ है ही नहीं
गर होगा तो सुलगता हुआ
"हम" की सुलगती ज़द पर तुम और मैं जहाँ "हम" की तो कोई हद है ही नहीं

अपने-अपने किनारे अपनी-अपनी हद और तन्हा सफ़र
और मुकम्मल हो गयी ज़िन्दगी

चिन्हित होने के लिये काफ़ी है दरख्त पर काले निशान लगाना
यूँ भी खामोशियों के जंगलों की आग किसने देखी है?