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अपेक्षाओं के सिन्धु / वंदना गुप्ता

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सुनो
अपनी अपेक्षाओं के सिन्धुओ पर
एक बाँध बना लो
क्योंकि जानते हो ना
सीमाएँ सबकी निश्चित होती हैं
और सीमाओं को तोडना
या लांघना सबके वशीभूत नहीं होता
और तुम जो अपेक्षा के तट पर खड़े
मुझे निहार रहे हो
मुझमे उड़ान भरता आसमान देख रहे हो
शायद उतनी काबिलियत नहीं मुझमें
कहीं स्वप्न धराशायी न हो जाए
नींद के टूटने से पहले जान लो
इस हकीकत को
हर पंछी के उड़ान भरने की
दिशा, गति और दशा पहले से ही तय हुआ करती है
और मैं वह पंछी हूँ
जो घायल है
जिसमे संवेदनाएँ मृतप्राय हो गयी हैं
शून्यता का समावेश हो गया है
कोई नवांकुर के फूटने की क्षीण सम्भावना भी नहीं दिखती
कोई उमंग, कोई उल्लास, कोई लालसा जन्म ही नहीं लेती

घायल अवस्था, बंजर जमीन और स्रोत का सूख जाना
बताओ तो ज़रा कोई भी आस का बीज तुम्हें दिख रहा है प्रस्फुटित होने को
ऐसे में कैसे तुम्हारी अपेक्षा की दुल्हन की माँग सिन्दूर से लाल हो सकती है... ज़रा सोचना!