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प्रेम,अध्यात्म और जीवन दर्शन / वंदना गुप्ता

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प्रेम
यौगिक प्रक्रिया
जो व्यक्त हो
तो ब्रह्मांड बन जाये
अव्यक्त रहे तो
निराकार हो जाये
देह से जुडे प्रेम के अनुबंध
प्रेम के वास्तविक स्वरूप नहीं
साकार रूप तभी शाश्वत है
जब निराकार में भी व्याप्त है
होने और ना होने के
बीच के अबूझे पलों में भी
प्रेम देह धारण करने का मोहताज़ ना हो
बस प्रकृति का संगीत बन
नि: संग बह रहा हो
असीम अनन्त
अजस्र धारा बनकर
बंसी का नाद बनकर
अपने निराकार को साकार करता
तो कभी साकार, निराकार में समेटता
मगर उसके होने और ना होने पर
ना कोई फ़र्क पडता
एक दिव्य नाद जो
सतत बज रहा हो
तब प्रेम दिव्यता धारण कर
अध्यात्म की ओर उन्मुख होता है
तब प्रेम में अध्यात्मिकता का समावेश होता है
जब प्रेम देह के अनुवाद से परे
आत्मिक तरंगों पर बहता है
तब आध्यात्मिक रूप धारण करता है

अध्यात्म क्या है?
अपने आत्म तत्व को पहचानना
खुद को जानना
और प्रेम स्वंय को पह्चानने
और जानने की पहली सीढी
और जब स्वंय का अध्ययन
करने की ओर कदम बढते हैं
तब प्रेम और अध्यात्म मिलकर
जीवन दर्शन कराते हैं
आत्म बोध कराते हैं

दर्शन क्या है?
जो दिख रहा है खुली आँखों से
या उससे भी परे कुछ है
जो अदृश्य है
और उस अदृश्य को ही
दृश्यमान करने की प्रक्रिया
ही जीवन दर्शन है

अदृश्य क्या है?
अस्तित्व... ......
किसका?
मेरा या प्रेम का या दोनो का
या समाहित हैं दोनो एक ही रूप में
जैसे दूध में मक्खन है
मगर बिना मथे
अपना स्वरूप नहीं पाता
क्या वैसे ही?
प्रेम—एक नदी
मैं—उसका पथ
दोनो एक दूसरे के पूरक ही तो हुये ना
और जब दोनो ने
एक दूजे को समाहित किया
तब जाकर एक का दूजे में लोप हुआ
और सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम का दिग्दर्शन हुआ
तब जाकर आत्मदर्शन हुआ.........मैं क्या हूँ और मैं क्या था?

मैं कोई विरक्त तत्व नहीं
मैं कोई अलौकिक क्रिया नहीं
मैं वह हूँ
जिसके अणु परमाणु बिखरे हैं
प्रकृति के विभापटल पर
विद्यमान हैं सारे ब्रह्मांड में
सब मुझमें ही तो समाहित है
और सब में मैं ही तो विराजमान हूँ
कौन किससे पृथक
कौन किससे जुदा
आकलन की वस्तु नहीं ये ज्ञान हो जाना
फिर उस अहसास को सिर्फ़ महसूसना
और फिर उसमें विचरण करना ही तो
आत्मबोध है्......जीवन दर्शन है
जहाँ प्रेम की सीढी पर पाँव रखते ही
अध्यात्मिक उन्नति के द्वार खुलने लगते हैं
और विचारबोध होते ही
ज्ञानबोध होते ही
जीवन दर्शन हो जाता है
आत्म तत्व का
अवलोकन हो जाता है
फिर प्रेम, जीवन और अध्यात्म
अलग नहीं
स्व-स्वरूप ही नज़र आता है

भिन्नता की दृष्टि तो भेदबुद्धि की निकृष्ट सीढी है...