भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कजली / 15 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:24, 21 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुय्याँ देखो री कन्हैया रोकै मोरी डगरी॥टे।॥
ओढ़े कारी कमरी, सिर पर टेढ़ी पगरी;
गारी बंसी बीच बजावै देखौ ऐसो रगरी॥
भाजै मारि-मारि कँकरी, रोजै फोरै गगरी;
यह अन्धेर मचाये घूमै सारी गोकुल की नगरी॥
लखिके सुन्दर गूजरी, तजिकै सखियाँ सगरी;
गर लगि मेरे सब रस लूटै दैया! कारो ठगरी॥
कीजै जतन कवन अबरी, लखि-लखि हंसै सबै जगरी;
प्रेमी बनो प्रेमघन घूमै मेरे संग-संग लगरी॥31॥