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कजली / 41 / प्रेमघन

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विन्ध्याचली लय

घुमड़ि घुमड़ि घन गरजन लागे रामा।
हरि हरि सैयाँ बिना जियरा घबरावै रे हरी॥
काली रे कोइलिया कुहूँ-कुहूँ रट लाये रामा।
हरि हरि बिरहा बथाई मोरवा गावै रे हरी॥
पिया प्रेमघन अजहुँ न आये, आली सुधि बिसराये रामा।
हरि हरि सूनी सेजिया साँपिन-सी डँस जावै रे हरि॥76॥