बिहारी / लक्ष्मीकान्त मुकुल

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दुखों के पहाड़ लादे
चले जाते हैं ये बिहारी
सूरत, पंजाब, दिल्ली, कहाँ-कहाँ नहीं
हड्डियाँ तोडती कड़ी मेहनत के बीच
उनके दिलों के कोने में बसा होता है गाँव
बीबी, बच्चों की चहकती हंसी
महानगरों के सतरंगी भीड़ में भी
कड़ी धूप में भी बोझ ढोते हुए
आती है उनके पसीने से देहात की गंध

परदेश कमाने गए इन युवकों की
जड़ें पसर नहीं पाती वहां की धरती में
बबूल की पेड़ों पर छाये बरोह की तरह
गुजारते हैं वे अपना जीवन
मूल निवासियों की वक्रोक्ति से झुंझलाए
कम मजदूरी पर खटते हुए
लौटना चाहते है अपने गाँव
कि याद आ जाता है बारिश की बौछार से ढहता हुआ घर
पिता का मुरझाया चेहरा, पत्नी का सूना चौका
पेबंद से अंग ढंकते बच्चे
शहरी बने नौकरीपेशा, व्यापार की मकसद से
गाँव छोड़े लोगों की तरह नहीं हैं ये युवक
जो पुश्तैनी गांवों को समझते हैं अपना जैविक उपनिवेश

बिहार से बाहर कमाने गए
युवकों के अंतस में महकती है मट्टी की गंध
उनके पसीने की टपकन से
खिलखिलाता है गाँव का गुलाबी चेहरा

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