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उमड़ घुमड़ घन गरजे बदरा / मृदुला झा

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मनभावन को तरसे बदरा।

रुत आये रुत जाये निशदिनए
बूँदें बन कर सरसे बदरा।

नदियों की तो बात क्या करनीए
सागर से मिल लरजे बदरा।

हरियाली गायब धरती सेए
उड़ने को नित तरसे बदरा।

विरहन मन की बात निरालीए
अंखियों से नित बरसे बदरा।

ताल.तलैया नहरों पर भीए
बरस.बरस कर हरषे बदरा।