कवि: कुंवर नारायण
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नींद खुल गई थी
शायद किसी बच्चे के रोने से
या किसी माँ के परेशान होने से
या किसी के अपनी जगह से उठने से
या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से
या शायद उस हड़कम्प से जो
स्टेशन पास आने पर मचता है.....
बाहर अँधेरा ।
भीतर इतना सब
एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग
जागता और जगाता हुआ ।
एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता
सुबह की रोशनी में,
डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता
कोई जगह ख़ाली करता
कोई जगह बनाता ।