भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उद्धव-शतक / जगन्नाथदास 'रत्नाकर'
Kavita Kosh से
श्री उद्धव द्वारा मथुरा से ब्रज गमन के कवित्त
- १-न्हात जमुना मैं जलजात एक दैख्यौ जात / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- २-आए भुजबंध दये ऊधव सखा कैं कंध / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ३-देखि दूरि ही तैं दौरि पौरि लगि भेंटि ल्याइ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ४-विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ५-नंद और जसोमति के प्रेम पगे पालन की / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ६-चलत न चारयौ भाँति कोटिनि बिचारयौ तऊ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ७-रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ८-गोकुल की गैल-गैल गोप ग्वालिन कौ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ९-मोर के पखौवनि को मुकुट छबीलौ छोरि / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १०-कहत गुपाल माल मंजुमनि पुंजनि की / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- ११-राधा मुख-मंजुल सुधाकर के ध्यान ही सौं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १२-सील सनी सुरुचि सु बात चलै पूरब की / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १३-प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १४-हेत खेत माँहि खोदि खाईं सुद्ध स्वारथ की / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १५-पाँचौ तत्व माहिं एक तत्व ही की सत्ता सत्य / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १६-दिपत दिवाकर कौं दीपक दिखावै कहा / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १७-हा! हा! इन्हैं रोकन कौं टोक न लगावौ तुम / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १८-प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- १९-बात चलैं जिनकी उड़ात धीर धूरि भयौ / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
- २०-ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’
श्री उद्धव के मथुरा से ब्रज के मार्ग के कवित्त
श्री उद्धव के ब्रज में पहुँचने के समय के कवित्त