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न घास है-- / केदारनाथ अग्रवाल
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न घास है
न घास की सुवास;
खूँटे से बँधा घोड़ा
अस्तबल में हिनहिनाता है;
नथुने फुलाए-
दाँत निपोरे-
कठोर जमीन को ठकठकाता है;
काल की काया को
चोट-पर-चोट पहुँचाता है;
मुक्त होने और
दिग्विजय पर जाने के लिए
अकुलाता है;
खूँटे को उखाड़ फेंकने के लिए
शक्ति और साहस के झटके
बारम्बार लगाता है।
रचनाकाल: ०१-०९-१९७८