भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

न घास है-- / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न घास है
न घास की सुवास;
खूँटे से बँधा घोड़ा
अस्तबल में हिनहिनाता है;
नथुने फुलाए-
दाँत निपोरे-
कठोर जमीन को ठकठकाता है;
काल की काया को
चोट-पर-चोट पहुँचाता है;
मुक्त होने और
दिग्विजय पर जाने के लिए
अकुलाता है;
खूँटे को उखाड़ फेंकने के लिए
शक्ति और साहस के झटके
बारम्बार लगाता है।

रचनाकाल: ०१-०९-१९७८