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गीतावली लङ्काकाण्ड पद 6 से 10 तक/पृष्ठ 2

(7)

 मेरो सब पुरुषारथ थाको |
  बिपति बँटावन बन्धु-बाहु बिनु करौं भरोसो काको ||

  सुनु, सुग्रीव! साँचेहू मोपर फेर्यो बदन बिधाता |
  ऐसे समय समर-सङ्कट हौं तज्यो लषन-सो भ्राता ||

  गिरि, कानन जैहैं साखा-मृग, हौं पुनि अनुज-सँघाती |
  ह्वैहै कहा बिभीषनकी गति रही सोच भरि छाती ||

  तुलसी सुनि प्रभु-बचन भालु-कपि सकल बिकल हिय हारे |
  जामवन्त हनुमन्त बोलि तब, औसर जानि प्रचारे ||