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ऊधौ! मोहन स्याम हमारे। / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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ऊधौ! मोहन स्याम हमारे।
लिपटे रहत अंग-‌अँग निसि-दिन, होत न कबहूँ न्यारे॥
मथुरा जाय मिले कुबजा तैं, ये बाहर के खेल।
हमरौ-‌उनकौ छुटत न कबहूँ, हिय तें हिय कौ मेल॥
उनके बिना न साा हमरी, छोड़ कहाँ वे जावैं।
वे न रहैं तो हमकूँ जीवित को‌ई कैसे पावैं॥
ऊधौ ! तुहरे नहीं नेत्र सो, हमहिं स्याम जो दीन्हे।
या तें भरम परे तुम डोलत, ग्यान-जोग-पद लीन्हे॥
हममें-‌उनमें दीखत जो कछु कबहुँ बियोग-बिछोह।
रस-वर्धन-हित उदय होत, सो लीला-रस-संदोह॥