Last modified on 1 जुलाई 2016, at 00:17

ओढ़ा हुआ दुख / शरद कोकास

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:17, 1 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=हमसे त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बासी अखबारों के साथ
तह कर रख दिया जाता है
बीता हुआ कल
रद्दी में बेचने से पहले
एक बार टटोलते हैं हम
भविष्य में सुख देने वाला
कोई दुख कतर कर रख लेते हैं
फिर कोई गंध महसूस कर
किसी गीत की कोई धुन सुन कर
उस कतरन को निकालते हैं
उदासी को इलास्टिक की तरह खींचते हैं
दिलीपकुमार की कोई फिल्म देखकर
आँसू बहाते हैं
रजनीगंधा के गुच्छे की तरह
गुलदान में रखे काल से
मुरझाए दुख झड़ते देखते हैं
स्वेट मार्टन की किताबें पढ़ते हैं
फिर भी चिंता छोड़ सुख से नहीं जी पाते हैं

इसे किस आश्चर्य के अंतर्गत रखोगे
कि आशंकाओं से भरे इस समय में
हम जिं़दा है
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए
गपियाते हुए दोस्तों के साथ
आराम से बिस्तर पर पांव पसारे
रंगीन टीवी पर
मंगल ग्रह पर विजय की
एक फैंटासी फिल्म देख रहे हैं

फु़र्सत हो तो एक खेल खेलें
घड़ी के किसी कांटे पर नज़र जमा लें
याद करें कल या परसों
या हफ्तों महीनों पहले
ठीक इस वक्त हम क्या कर रहे थे
दो चार घटनाओं के अलावा
हमें कुछ याद नहीं आएगा
पिछले दिनों हमने
कौन से कपड़े पहने थे
किस दिन कौन सी सब्ज़ी खाई थी
बेशक यह याद रखने की बातंे नहीं है
इस तरह की बातें तो
मनुष्य सहज भूल जाता है
ओढ़ा हुआ दुख भी भुला दिया जाएगा
किसी दिन
जैसे भुला दी जाती है
शेविंग करते हुए ब्लेड से लगी खरोंच।

-1999