मत्तगयंद सवैया
(पुनः वसंत की नवीन शोभा का वर्णन)
फूले घने, घने कुंजन माँहिं, नए छबि-पुंज के बीज बए हैं ।
त्यौं तरु-जूहन मैं ’द्विजदेव’, प्रसून नए-ई-नए उनए हैं ॥
साँचौ किधौं सपनौं करतार! बिचारत हूँ नहिं ठीक ठए हैं ।
संग नए, त्यौं समाज नए, सब साज नए, ऋतुराज नए हैं ॥३४॥