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शकुन्तला / अध्याय 8 / भाग 1 / दामोदर लालदास

जनिक फहरय यश-पताका सुर-पुरी पर्यन्त।
सद्गुणालंकृत प्रतापी भूप से दुष्यन्त।।
कियत दिन रहि ततहि उर भरि सौख्य भाव अपार।
करथि प्राण-प्रियाक सँगहि नित्य प्रेम-विहार।।

दुहुक मानस-भवनमे रसपूर्ण प्रीति-उमंग।
करथि नव-नव विविध क्रीड़ालाप मधु-रस-रंग।।
खनहुँ दुहु मिलि फूल लोढ़थि कलित सौरभ-सार।
बैसि गूथथि प्रीति नव भरि तकर मनहर हार।।

दुहुक दुहु ग्रिव-देशपर निज कर-सरोज उठाय।
मन्द मधु मुसुकान युत स्रज देथि से पहिराय।।
खनहुँ लै छथि बदलि पुनि दुहु सुमन-विचरित-हार।
करथि प्राण-प्रियाक भूपति विविध-विध श्रृंगार।।

श्रवण-भूषण खन बनाबथि सुमनहिंक अभिराम।
देथि नृप पहिराय अपनहिं चूमि मुख सुखधाम।।
खनहि चूड़ामणि मनोहर विरचि सुमनक बेश।
करथि प्राणप्रियाक सज्जित स्निग्ध-श्यामल केश।।

खनहुँ देखधि दुहुक दुहु मुख-चन्द्र भेल चकोर।
खनहुँ मधु-मधु मुसुकि हास-विलास-व्यंग न थोड़।।
खनहुँ से लज्जावती मुख-चन्द्र लैछ खसाय।
किन्तु, सुनि कौजुक-भरल पति-वाणी लैछ उठाय।।

खनहुँ विचरण करथि दुहु, चल मन्द-मन्द समीर।
खनहुँ कुसुमोद्यानमे दुहु जा ‘पटाबधि नीर।।
नृप हरिण अवलोकि कौखन कहथि हँसि मधु बैन।।
‘प्रियतमे! की अछि दुहुक सुखकर ननोहर नैन!’

एक दिन सुमुखीक सन्निधि तृषित आकुल-वित्त।
अपन पालित हरिण आयल नीर-पान निमित्त।।
सुन्दरी झट लेल कर जल-पात्र तकरे हेतु।
किन्तु से छिनि लेल तैखन भूप पुरुकुल-केतु।।

प्रेम-मूर्ति दयार्द भूपति कयल यत्न अनेक।
किन्तु नृप-करसँ न पिउलक हरिण घोटहु एक।।
तखन से जलपात्र नृप प्राणप्रिया-कर देल।
परम भेल प्रसन्न हरिणो सैह जल पिबि लेल।।

देखि ई लीला कहल तत्काल हँसि दुष्यन्त।
‘सत्य सहवासिहिंक ऊपर होय स्नेह अनन्त।।
अन्यथा अतिशय पिपासाकुलित भेल अधीर।
ई हरिण हमरहुँ करें पिबि लैत निश्चय नीर।।’

एक दिन लय हाथमे परिपक्व फुटल अनार।
डारिपर बैसल शुकक चुचुकारि कयल दुलार।।
उतरि दौड़ल डारिसँ शुक देखि दिव्य अहार।
खाय लागल बैसि तन्वंगीक कर दय भार।

एक दिन छिटलनि लता-मण्डपक आँगन साम।
छोडि दरबा, ऐल परबा-झुण्ड की अभिराम।।
क्यौ ‘गुटुरुगुं गुटुरुगुं ध्वनि करति लागल खाय।
माथपर क्यौ, हाथपर क्यौ, बैसलो दर्शाय।।