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शरशय्या / तेसर सर्ग / भाग 11 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

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केवल छूतए चानक देह।
पाओत नहि मानव स्नेह।।53।।
अधिकारक हेतुक की व्यर्थ।
चसक बढ़ाबए करए अनर्थ।।54।।

बढ़िते जाइछ दिन दिन रोस।
एक न राखए आन भरोस।।55।।
अपनहि पर अबलाम्बत नीक।
किन्तु न समुचित ईर्ष्या थीक।।56।।

केवल देहहिके सभ जानि।
करए काज तँ देशक हानि।।57।।
परहित साधन कर्मक ज्ञान।
राखक थिक नित अपनो प्राण।।58।।

चित्त अचंचल पर-अनुरोध।
सँ नहि होइछ शुभ अवरोध।।59।।
नीक काजसँ नीके नीक।
थिक कल्याणक एक प्रतीक।।60।।