धर्मराज-हित भेल सकल ई
मानव-तन-संहार।
पछतावथि ओ शोणित-प्लावित
देखि धरापर धार।।5।।
रहल धैर्य नहि मनमे किछुओ
चित्त सतत उद्भ्रान्त।
महाविनाशक खेड़ देखोलन्हि
समटि कठोर कृतान्त।।6।।
जिज्ञासामे मुनिगण आबथि
शास्त्र-धुरन्धर शान्त।
करथि शान्ति प्रस्ताव बुझाबथि
छला नृपति जे भ्रान्त।।7।।
असह वेदना बढ़ए तखन हो
वैराग्यक अनुभाव।
करथि धर्मसुत भावन सत्त्वक
धार्मिक सहज स्वभाव।।8।।