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याद रहे रंगों का मेला / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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याद रहे रंगों का मेला, रंगों की रानी!
करो कुछ ऐसी नादानी!

नयनों में अरुणाभा तैरे
अधर हुए रसभीने,
कोने-कोने सोम कलश हैं
चलो-चलें हम पीने,
ये, वे क्षण हैं, जिनको तरसें बड़े-बड़े ज्ञानी!
 करो कुछ ऐसी नादानी!

पार करें अंजन के रेखा
चितवन बाज़ न आये,
तप्त शिराओं पर पड़ते हैं
रति-अनंग के साये,
गर्म अबीरी साँसों को कर दो पानी-पानी!
 करो कुछ ऐसी नादानी!

ठुमुक चलो तुम ऐसे, जैसे
जल-तरंग लहराये,
भर उमंग खींचो पिचकारी
तन विवस्त्र हो जाये,
अनजाने में करो शरारत जनि-पहचानी!
 करो कुछ ऐसी नादानी!

इंद्र धनुष तोड़ा बसन्त ने
सिन्दूरी आँगन में,
रोली को गुलाल ले भागा
यौवन के मधुबन में,
लजवन्ती कामना न ढक पाये आँचल धानी!
करो कुछ ऐसी नादानी!