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लिपटी परछाइयाँ / कुंवर नारायण

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उन परछाइयों को,
जो अभी अभी चाँद की रसवंत गागर से गिर
चाँदनी में सनी
खिड़की पर लुढ़की पड़ी थीं,
किसने बटोरा?

चमकीले फूलों से भरा
तारों का लबालब कटोरा
किसने शिशु-पलकों पर उलट दिया
अभी-अभी?

किसने झकझोरा दूर उस तरु से
असंख्य परी हासों को?
कौन मुस्करा गई
वन-लोक के अरचित स्वर्ग में
वसन्त-विद्या के सुमन-अक्षर बिखरा गई?
पवन की गदोलियाँ कोमल थपकियों से
तन-मन दुलरा गईं?

इसी पुलक नींद दे
ऐ मायाविनी रात,
न जाने किस करवट ये स्वप्न बदल जाँय !
माँ के वक्षस्थल से लगकर शिशु सोए,
अनमोहे जाने कब
दूरी के आह्वान-द्वार खुल जाँय ।