अभागी / पद्मजा शर्मा
महलों में दम घुट रहा था
सपने बिखर रहे थे
साँस भी आते हुए डर रहे थे
पग-पग पर पहरे लग रहे थे
और मैं थी कि फिर भी सपने देख रही थी
ठान लिया था कि जब मरना ही है तो
अपनी मर्ज़ी से जीना है
हर सपने को पंख देना है
ताज़ा हवा
ऊंचा विस्तृत नीला आसमान
सुंदर धरती
सब मुझे बुला रहे हैं
सड़ चुकी मर्यादाओं
परम्पराओं को सांप की केंचुल की तरह
उतरा फेंक चुकी थी
झूठे आदर्शों की नदियाँ मेरी आँखों से बह चुकी थीं
रिश्तों की बेड़ियाँ कब की टूट चुकी थीं।
घर से निकल ही रही थी
कि नन्ही बिटिया ने हाथ थाम लिया
तीन कदमों में जिसने नाप ली धरती वो था वामन
मैं थी माँ
इंच भर भी चल नहीं पाई
आँखें भर-भर आईं
बिटिया तुझे नहीं छोड़ सकती
तुझ से मुँह नहीं मोड़ सकती
मैं सपनों के बीज तेरी धरती में बो दूँगी
स्वंय को मिट्टी में खो दूँगी
मुझेे नहीं मिला तो क्या
तू जी सके एक भरपूर जीवन
तुझे वो सब दूंगी
जिससे मुझ जैसी दूसरी ‘अभागी’ कोई ‘मैं’
इस धरती पर रह न जाए
आँसू एक भी
किसी औरत की आँख से बह न पाए
दुनिया से मुँह मोड़ सकती हूँ
बिटिया मैं तुझे नहीं छोड़ सकती हूँ।

