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घर में बाज़ार / भगवती प्रसाद द्विवेदी

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खरहे-सी भागती उमर
आसरे की डोर कट गई।

सब कुछ बदला-बदला-सा
सच भी लगता तिलिस्म है,
आत्मा तो उड़न-छू हुई
थिरक रहा महज़ ज़िस्म है

सपन-सुए को लगी नज़र
कामना की लाश पट गई।

भूमंडल में ग़ायब घर
ख़ुद की पहचान मिट गई,
अँगनाई, तुलसी चौरा
जज़्बाती बात पिट गई

सूचना तकनीक कम्प्यूटर
दुनिया कितनी सिमट गई!

संदेही घूरती नज़र
अपनों से बेगाना पन,
घर में बाज़ार आ घुसा
मतलबी हुआ अपनापन

है अतीत बुर्जुआ सफ़र
सोच की दिशा पलट गई।

मोबाइल ले उड़ा सृजन
नयनों से नींद उड़ गई,
थम जाएँगी कब साँसें
दहशत की फ़िक्र जुड़ गई

क्या उदार वक़्त का असर
आँखों की हया हट गई!
खरहे-सी भागती उमर
आसरे की डोर कट गई।