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तुम मुझे देवी कह रहे हो! / शैलेन्द्र सिंह दूहन

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तुम
मुझे देवी कह रहे हो!
खुद को देवता कहलवाने की इच्छा जाग पड़ी है क्या?

मेरी सुनकर तुम हँस पड़े!
मगर...
यह हँसी उस हँसी से बिलकुल अलग है
जो हम दोनों के अधरों से स्वतः झरी थी
जिसे अपनी आँखों ने नहीं हृदयों ने देखा था।

यह क्या?
तुम तो आँखें झुकाकर चुप हो गये...
मगर...
यह चुप्पी भी तुमहारी हँसी की तरह वह चुप्पी नहीं है
जिसे मैं बिना कहे ही
मासूमियत कह देती थी
और तुम बिना समझाए ही सब समझ लेते थे
वह मासूमियत
जो मैं तुम्हारी शर्ट के बटन खोलते समय
तुम्हारी आँखों में देखती थी
और तुम चुपचाप मेरे देखने को देखते रहते थे।

नही...
मैं गलत कह गयी
तुम केवल देखते नहीं रहते थे...
तुम मेरा देखना पीते रहते थे और मैं तुमहारा।

ऐसा भी नहीं है
किफकत
इक दूजे की देह का गणित ही
हम दोनों के सम्बंधों का आधार हो।

हम दोनों ने
जाने कितने कितने
जीवन के संघर्श गीतों को
सरगम... लय बन...
मींड... कण बन...
तान-आलाप बन...
एक साथ गाया है।

तुमहें याद होगा!
तुम खेत सींचते थे,
मैं बैल हाँकती थी।
तुम खेत हालते थे,
मैं बीज डालती थी।
तुम जून बाँटते थे ,
मैं सन भिगोती थी।
तुम फसल काटते थे ,
मैं पाँत बाँधती थी।
तुम पाँत चकाते थे,
मैं पाँत उठाती थी।

ऐसे
इक दूजे का सहारा बन
भरा था हमने
अपना खलिहान।
देवी-देवता के विशेषणों से
बिलकुल बेखबर

तुम फिर हँस पड़े!
मुँह फेर कर।
प्रेम और संघर्ष की बारह खड़ी बिसुर
सहयोग और सहजता के कच्चे धागे झटक

यदि
अति पुरुषवाद का गंदा कीड़ा
 तुमहारे भीतर भी
कुलबुला हि उठा है
 तो सुनो...

जीवन की भयानक घिस-घिस में
सदियों घिसी हूँ।
परम्पराओं
और पुर्वाग्रहों के पाटों में
खूब पिसी हूँ।

बहुत चख चुकी मैं
ये सुगढ़ भाषा की घुट्टी।
बहुत उठाया
पर्वत से भारी
बड़े-बड़े विशेष्णों का बोझ।
बहुत पिया
 अपनी ही आँखों का नमकीन पानी
बस...
अब नहीं।

क्योंकि
देवी और दासी के विशेषणों के बीच खड़ी मैं
आज़ की नारी ।
मुझ से परिचित हूँ...
मुझे जड़ों और खूँटों के बीच का फर्क पता है।