भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दीद भी अब तो ख़्वाब लगता है / क्षेत्र बहादुर सुनुवार
Kavita Kosh से
दीद भी अब तो ख़्वाब लगता है
ज़िन्दगी मुझको सराब लगता है
टूटे सपने लिए मैं फिरता हूँ
मेरी क़िस्मत ख़राब लगता है
चाँदनी ओढे सोई है दुनिया
मुझको क्यों ये इताब लगता है
नफरतो से सजा ली दिल लेकिन
प्यार भी बेहिसाब लगता है
कैसे चलने लगी हवा अब तो
खूँ भी देखो शराब लगता है
क्या कहे उस हसीँ की सरमस्ती
वह सरापा गुलाब लगता है
इश्क कहते यहाँ जिसे दुनिया
दर्द का वह क़िताब लगता है
दफ़्न हुए हसरते मेरे इस तर्ह
’प्रेम’ कोई अजाब लगता है।

