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नदी-धर्म / भगवती प्रसाद द्विवेदी

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पानी से है प्यार अगर तो
पानीदार बनो।

पानीदार बनोगे संवेदना-तरलता से,
कल-कल-छल-छल लहरों की गतिमान चपलता से

किसी पहाड़ी झरने की
निर्मल जलधार बनो।

जीवन की गति है नदिया का बस बहते जाना,
लोक के लिए खा मौसमी थपेड़े, मुसकाना

तृषित धरा की तृप्ति के लिए
मदिर फुहार बनो।

नदिया में पानी, आँखों का पानी बाक़ी है,
पानी से ही जीवन और रवानी बाक़ी है

मरे न आँखों का पानी
इसलिए उदार बनो।

खुदगर्जी में ख़ून बहाया,बहा पसीना क्या,
नदी-धर्म गर नहीं निभाया, जीना जीना क्या!

किसी डूबती नैया के तुम
खेवनहार बनो।
पानी से है प्यार अगर तो
पानीदार बनो।