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माँझी रे! पतवार नहीं खे / शैलेन्द्र सिंह दूहन

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माँझी रे! पतवार नहीं खे,
सहजे मोती छीन नहीं ले।

चहके दिन जो चिड़ियों की ज्यों
ठेल न उनको चप्पू से यों
लाड़ पिता का लोरी माँ की,
नटखट बचपन की वो झाकी।
जो माँ से छुप की शैतानी ,
गलियों से ला माटी छानी।
मटकी में वो माटी भरना,
पानी से फिर गीली करना।
गारे के वे चकले-बेलन,
चूल्हा चक्की सारे बर्तन।
न सुखा मेरे हाथों बोचे,
लड्डू वे गीली माटी के
माँझी रे! पतवार नहीं खे,

खेले थे जो खेल सुहाने,
छीन सके गा क्या दीवाने?
घुत्था बिज्जो डंडा-सुलिया,
खेले गिट्टे गुड्डा-गुड़िया।
हरा समंदर गोपी चंदर,
गुल्ली-डंडा काठ-कठम्बर।
पोशम्पा व छुपम-छुपाई,
कंचे पिट्ठू चोर सिपाही।
तैर नहर में दौड़ लगाना,
चिड़िया उड़ में भैँस उड़ाना।
थी फिरकाई फिरकी जिनकी,
पात हरे हैं पहले ही से।
माँझी रे! पतवार नहीं खे,

फागुन के वे हाल निगोड़े,
दुलहंडी पे मीठे कोड़े।
बासोड़े के चावल बासी,
खीर बनी हर पूरनमासी।
ग्यारस की थी गजब निशानी,
लाल मतीरे मीठा पानी,
झूल तीज की झूले जी भर,
छक-छक खाए फिरनी घेवर।
राखी गोगा बनी सुहाली,
साथ मनाए ईद दिवाली,
गोबर के वे चाँद सितारे,
थप-थप थापे हर होली पे।
माँझी रे! पतवार नहीं खे,

बरबन्टी शहतूत निबोली,
खाए जामुन भर-भर झोली।
बड़बेरी के अजब नजारे,
काँटे भी लगते थे प्यारे।
धानी जो की काचर ककड़ी,
होल बनाए खाई रबड़ी।
तुझे पता क्या निष्ठुर माँझी
शादी के बनवारे साँझी।
पनघट पे पानी के झारे,
अधबुध घूँघट के फटकारे।
मधुर मिलन की पहली रजनी
हृदय बसी है पहले-सी रे।
माँझी रे! पतवार नहीं खे,

प्रीत पगी गरमाहट फिर जी,
बच्चों की तुतलाहट फिर जी।
हाथ मगन थे बन कर झूले,
मुदित अधर लोरी गा फूले।
अतुलित थी बचपन की पुलकन,
सारा घर बन महका गुलशन।
पगले क्या जी है तनहाई?
नातों की उधड़ी तुरपाई।
आज़ गया ज्यों कल जाएगा,
बेशक सूरज ढल जाए गा।
अश्क वेदना के कविता में,
सदा रहे थे सदा रहेंगे।
माँझी रे! पतवार नहीं खे,