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तुम्चली तुम चली आ रही थी
छोटे-छोटे भिखमंगे-से नंगे
काँपते लचकते श्वेत वल्कलवाले वृक्षों से होकर
दूरी पुकारती थी दूरत्व को ।
गिरजाघर के प्रांगण के बीच
वृक्षों पर डटी थी मौत
एक सरकारी सर्वेक्षक की तरह
और देख रही थी मेरे मुर्दा चेहरे में
मापने ह्तु
कि मेरे लिए कितनी बड़ी क़ब्र ख़ोदनी थी ।
 
पास ही एक शांत आवाज़
स्पष्टतः सभी सुन सके थे ।
वह मेरी ही आवाज़ थी भूत की,
पैगम्बरीय आवाज़
सर्वनाश से बिल्कुल अछूती, यों :
अलविदा, अलौकिक रूप-परिवर्त्तन के
नीलेपन को, स्वर्णिमता को ।
 
विदा, मेरी मृत्यु के अन्तिम क्षणों की तिक्तता को
जिसको एक नारी की अन्तिम पुचकार ने
मधुरता प्रदान की थी--
अलविदा, उन वर्षों को
जिनकी कोई अवधि नहीं ।
विदा उस रानी को
जिसने दर्प-दमन की गहनता को
चुनौती दी थी
ओ मेरे वर्ष !
समर-भूमि तो मैं था तुम्हारी ।
 
पसरे पंखों के वितान को अलविदा
उड्डयन की मुक्ति कठोरता को अलविदा
अलविदा संसार की उस प्रतिमा को
जो भाषणों में उभरती है
विदा सर्जनात्मकता को
कारनाम-ए-करिश्मात को ।
''' अँग्रेज़ी भाषा से अनुवाद : अनुरंजन प्रसाद सिंह
</Poem>
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