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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
उन्हीं इलाक़ों से वापस मुढ़ना है
वहीं से गुज़रते हुए
देखना है वही पेड़, वही गुफाएँ

आँखें बूढ़ी हुईं
पेट बूढ़ा हुआ
रह गया अभागा मन
तलाशता वहीं जीवन

चार दिनों में कोई लिखता
हरे मटर की कविता
मैं बार बार ढूँढ़ता शब्द
देखता हर बार छवि तुम्हारी

उन गुज़रते पड़ावों पर
अब सवारी नहीं रुकती
बहुत दूर आ चुका हूँ
वहीं रख आया मन
वही ढूँढ़ता चाहता मगन।


</poem>
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