भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKRachna
|रचनाकार=अज्ञेय
|संग्रह=हरी घास पर क्षण भर / अज्ञेय}}{{KKAnthologyDeshBkthi}}{{KKCatGeet}}
<Poem>
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल गंवारूगँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है
इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता हैहै।
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता हैहै।
इन्हीं में लहरती अल्हड़
सभ्यता का भूत हँसता है।
'''राँची-मुरी (बस में), 6 फरवरी, 1949'''
</Poem>

