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Kavita Kosh से
:::आँखड़ियों से झरते लोर,
:::देखेगा कौन?
बौने ढाकों का यह वन, लपटॊं लपटों के फूल,
पगडंडी के उठते पाँव, रोकते बबूल,
:::बौराये आमों की ओर,

