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:::अन्याय तुम्हारा कैसा?
फिर नभ की ये चमकी-सी छोटी-छोटी लटकनियाँ
निशि की साड़ी की कनियाँ प्रभु की ये बिखरी मनियाँ।
अपने प्रकाश का प्यारा ये खोले हुए खजाना,
बह पड़े कहीं इनको तो जीवन भर है बिखराना।
झाँको वे देख पड़ेंगे, ग्वालों की झोपड़ियों पर,
ताको, वे देख पड़ेंगे, विद्वानों की मढ़ियों पर!
उनके दर्शन होते हैं, देवालय द्वारों पर भी,
पर हा वे लटक रहे हैं इन कारागारों पर भी!
फिर वे दाखों की बेलें जिनसे पंछी दल खेलेंजी में मधुराई लाने, वर्षा हिम आतप झेलें!इनकी गोदी के धन हैं मणियों से होड़ लगातेये रस से पूरे मोती, किसका जी नहीं चुराते! किसकी जागीरी है यह, इनकी मीठी तरुणाईकिसका गुण गाने इनमें चिड़ियों की सेना आई?बीमारों की तश्तरियों में ये जीवन देते हैं,चूसे जाते हैं ये, पर नव अपनापन देते हैं! वैद्यों के आसव बन कर धमनी में गति पहुँचाते,पर हा, उनको ही घातक मदिरा बनवाकर पाते!या धन लोलुप ऐयाशों के, भोगों की थाली कोदाखों से भरते पाते धन के लोभी माली को!:प्रिय न्याय तुम्हारा कैसा,:::अन्याय तुम्हारा कैसा? '''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुरजबलपुर सेन्ट्रल जेल--१९४४१९३०
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