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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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कौन नहीं जानता ये अलग प्रजातियों के प्राणी हैं
 
पर एक दूसरे से काम लायक जो समाज बनाया जाता है
 
यह कोई देवताओं से नहीं बल्कि उनके प्रति मनुष्य की श्रद्धा से सीखे
 
तो नतीज़े कुछ और निकलेंगे
 
गिलहरी को मनुष्य पालतू नहीं बना सका या बनाना नहीं चाहता था
 
क्योंकि वह गाय जैसी दुधारू नहीं हो सकती
 
अगर होती भी तो आदमी कभी उसे दुह नहीं पाते
 
लतखोर गाय से लाख गुना चंचल है वह
 
एकदम पारे जैसी
 
पर पारे की चंचलता पारे को सिर्फ़ लुढ़का सकती है, छितरा सकती है
 
पारा अपने पैरों से पेड़ पर उतर-चढ़ नहीं सकता
 
गाय में भी एक ख़ास गाय है हिमालय की चँवरी गाय
 
जो संभवतः हूणों और खसों के साथ आई थी
 
जिसके बछड़े को याक कहते हैं
 
-दोनों की पूँछ के बनते हैं चँवर
 
चलते चलते भी याक स्थूल और स्थिर दिखाई देता है
 
चंचल गिलहरी की चँवर जैसी पूँछ देख कर
 
मुझे सुस्त चँवरी गाय और मोटा मन्द याक याद आये
 
- यह समुद्र देख कर हिमालय याद आने की तरह है
 
एक धरती की विराट जांघों के बीच आलोढ़ित जलाशय है
 
दूसरा उसके सिर पर चढ़कर जमा हुआ
 
-नीलाशय में पीठाधीश्वर,
 
महाशय श्वेताशय - मीठी नदियों का अक्षय स्रोत
 
जैसे किसी पहाड़ से भी दोगुनी-तिगुनी उसकी पगडंडी होती है
 
वैसे ख़ुद से दुगुनी-तिगुनी होती है गिलहरी की पूँछ
 
जिसके चेहरे और पूँछ में से कौन ज़्यादा चंचल है कुछ पता नहीं चलता
 
चंचल लहरों से बनी नदी का संक्षिप्ततम शरीर है गिलहरी
 
- पँछ के अंतिम बाल तक धुली-खिली
 
मुँह से दुम तक की स्पंदित लहरियों में गिन नहीं पा रहा मैं एक भी लहर
 
गिलहरी की चँवराई चंचलता
 
क्या याक की घंटे जैसी लटकी ध्यानस्थ दुम बन सकती है?
 
जो अपनी पीठ पर बैठनेवाली मक्खियों को
 
हमेशा वैसे ही उड़ा देती है
 
जैसे दुनिया के अनर्थों से दूर रखने के लिये
 
हम उसे भगवानों पर डुलाते हैं
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