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विस्तार में सिकुड़न / भगवती प्रसाद द्विवेदी
Kavita Kosh से
अपनों से कट,अनजानों से
जुड़ना भी क्या जुड़ना है!
जहाँ न तो जड़,न ज़मीन ही
फिर जुड़ाव का नाता क्या,
कोलाहल औ' भीड़ भरे
चौराहों से अपनापा क्या!
मौलिकता तजकर त्रिशंकु-सा
उड़ना भी क्या उड़ना है!
जहाँ न घाटी की प्रतिध्वनियाँ
जहाँ न छवरें धूलभरी,
जहाँ न दूबघिसी पगडंडी
जहाँ न पाखी स्वरलहरी
जहाँ न धूप-छाँह मृगछौनी
वहाँ बैठ क्या कुढ़ना है!
चलो जहाँ जन-जन के मन में
लहराती हो एक नदी,
बाट जोहते परदेसी की
जहाँ उचरते काग अभी
यह कैसा विस्तार कि जिसमें
रोज-ब-रोज सिकुड़ना है!
अपनों से कट,अनजानों से
जुड़ना भी क्या जुड़ना है!

