सती परीक्षा / सर्ग 5 / सुमन सूरो
नैमिष बनमें अश्वमेघ जग्य
बढ़तें-बढ़तें छापी लेलकै
नैमिष वन के कोना-कोना।
कुटिया सें पर्नमहल तक के,
सजलै धारी सपनोॅ सोना॥
गिलफिल-गिलफिल दिन-रात,
सजग संसार किरन के तारोॅ पर।
जंगल में मंगल गीत चढ़ै-
उतरै शुभ मंत्रोच्चारोॅ पर॥
है तरफ बिराजै पाँती में,
कुटिया मुनिउग्र-तपस्वी के।
हौ तरफ भूप के पर्न-महल
सूरमा समर्थ जसस्वी के॥
देशोॅ के सौंसे ज्ञान-वीर,
भावना यहां पर ऐलोॅ छै।
मंडप के चारो तरफ कुटी,
झुरमुट-झुरमुट में छैलोॅ छै॥
सखुआ तमाल तारोॅ के
फेंड़ी तर छै पर्न-कुटी बनलोॅ।
सुन्दर सब विधि में साफ
रुचिर भोजन कपड़ा जन-धनसजलोॅ।
मंजर-मंजर पर भमरादल,
मधुसिक करै मधुमय गुंजन।
हर फूल-कली के सौरभ में;
सनलोॅ छै कोयल के पंचम।
चाँदनी रात दूधिया बस्त्र,
जंगल पर जबेॅ ओढ़ाबै छै।
फूटै छै अजगुत धार
मगन हरियाली खूब नहाबै छै॥
बिन कलकल-छलछल के झरना,
स्वर्गोॅ सें आबै धरती पर।
फूटै भीतर सें सजल जोत,
गाछी पर, बंजर परती पर॥
चमकै छै तारा अनगिनती
घनघोर अन्हारी राती में।
छै जग्य-भूमि सन आसमान;
दीया छै धारी पाँती में॥
मंत्रित-अभिमंत्रित वेदी सें
उमड़ैछै जखनी धूम-घटा।
देवता स्वर्ग के मंत्रमुग्ध,
आवी देखैछै जग्य-छटा॥
गोमती माय के कोरा में,
नैमिष वन बुतरू सुतलोॅ छै।
छै रंग-बिरंगा पहिरावा;
घुँघरू पजनी सब बजलोॅ छै॥
गेरूवा, तसर, मखमल बलकल,
सब एक साथ रेशमी ऊन।
कपड़ा के पट्टी टाँकी केॅ
सीने छै सोहै आठ गून॥
फुलझड़ी घड़ी हर छूटै छै,
फूटै छै अजगुत रूप रंग।
महिमा में एक अकेलोॅ छै;
धरती पर मानोॅ नैभिष बन॥
छै जगह-जगह दाता लै केॅ,
हाथोॅ मंे रत्न, अनाज, बस्त्र।
मनविच्छा पाबी मंगवैया,
हरसै छै सामग्री अजस्र।
दीर्घायु तपस्वी उग्रमुनी
सब बोलै एक्के बात यहाँ।
यै दान-मान के जोड़ी में,
जम-इन्द्र-वरुण के जग्य कहाँ?
लौटी ऐलै लछुमन साथें,
मारी भू-मंडल के फेरा।
छै कृष्णसार मृग सन सुन्दर,
अपरूप अलौकिक शुभ घोड़ा॥
हिन-हिनी सुरीला लागै छै,
छै दर्प समैलोॅ रागोॅ में।
मानोॅ रघुवंशी पराकरम,
सिमटी ऐलोॅ छै बागोॅ में॥
लै केॅ कत्तेॅ उपहार भूप,
आबी रहलोॅ छै जग्य-धाम।
सब छुटलोॅ-बढ़लोॅ रिसी-मुनी
जपने आबै छै राम-राम॥
छै जटा-जूट खुललोॅ बिथरी
पीठी पर गर्दन बाँही पर।
मुख पर सोभै दृढ़भाव अचल,
अंकुश लालसा लराही पर॥
आसन पर राजित राम चन्द्र,
हवि-समिधा आगू में धरलोॅ।
मुनि सप्तर्षि ऋक्-साम लीन
मंडप छै ऋत्विज सें भरलोॅ॥
छै बाम भाग में वैदेही,
प्रतिमा रूपोॅ में समासीन।
रामोॅ सें जोड़ी गेंठ अचल,
अविचल भावोॅ सें जग्य-लीन॥
बाजै छै ढोल मृदंग कहीं,
नट-नर्त्तक नाँचै गाबै छै।
दर्शक-मंडली विभोर लीन,
छन-छन खुशियाली पाबै छै॥
जुवती-नवजुवती सजी-धजी,
मारै छै मंडप के फेरा।
आँखी में लै केॅ जग्य-धूम
हँसली-कुदली जाय छै डेरा॥
दिनके भेलै निस्तार कर्म,
सँझकी के सूर्य-ललाय गेलै।
आसन तेजी जेजमान राम,
कुटिया के मग डहराय गेलै॥
संवाद कहलकै लछुमन ने,
बालमिक मुनी के आबै के।
तप-तेज दीप्त नैमिष वन केॅ;
प्रतिभ के जोती पाबै के॥
तपलोॅ सोनोॅ रं मुख-मंडल
आँखी में भाव उमड़लोॅ छै।
छै चौड़ा दिव्य कपार जहाँ;
जोतिर्मय झरना जड़लोॅ छै॥
लै भाव-कल्पना के तरंग,
रोयाँ-रोयाँ में भासमान।
तैय्यो बिचरै छै धरती पर;
निष्काम, कर्मरत, पूर्णकाम॥
पूजी-बन्दी चरणारविन्द,
समुचित आदर सत्कार करी।
निज आश्रम गेलै राम;
हृदय संतोष खुशी के भाव भरी॥
प्रखर-ज्ञान अज्ञान बीच,
जेना की भक्ति विराजै छै।
जेना धरती-आकास बीच;
में अहरह अनहद बाजै छै॥
तैन्हें मुनिबर के सजी गेलै,
सुन्दर मुनिवृन्द नगीचोॅ में।
राजा के दोसरोॅ ओर पाँत;
कुटिया दोनों के बीचोॅ में।
घूमी-घूमी केॅ जग्य-धाम,
मुनिवर ने सतत निहारै छै।
रिसि-मुनी-तपस्वी के वंदन;
अर्चन, पूजन स्वीकौ छै॥
वन-पर्वत के हरियाली में,
बसलोॅ छै सुन्दर नगर गाँव।
चौरस्ता, गली, सड़क, जनपथ;
सब साफ सोहानोॅ ठाँव-ठाँव॥

