हम दिव्यांग नहीं / शैलेन्द्र सिंह दूहन
न...
हम नहीं,
तुम।
तुम हो दिव्यांग।
क्योंकि...
तुम्हारी तो
एक अनुपस्थिति भी
जहाँ-तहाँ उपस्थित रहकर
बड़े-बड़े आयोजन कर देती है
रोकेट उड़ा देती है
युद्ध करा देती है
समझौते करा देती है।
सचमुच...
जाने कितने-कितने गुणा बड़ी है
तुम्हारी केवल एक अनुपस्थिति,
हम करोड़ों की उपस्थिति से।
तुम शान से चंद लम्हों में ही
सारा विश्व घूम लेते हो
हम सफेद छड़ी की उँगली पकड़
बैसाखी ले
बंद पहन
चल भर पाते हैं, रेंगने जैसा।
तुम्हारे
बहुत महंगे कपड़ों पे
व्यस्तता के तमगे लगे हैं।
हम पहने हैं
बाप दादा की उतरन
जिस पे लगी है
गरीबी और बेरोजगारी की थेकड़ी।
दिशाओं के कपाट बन्द करना
पुरवा को पछवा करना
नदियों की डगर बदलना
आदि-आदि,
तुम्हारे बाएं हाथ के काम हैं।
सोचो,
दिव्यांग तुम हो कि हम।
हमे पता है
कि तुम्हें पता है
परन्तु...
मसखरे हो तुम।
तुम तो इस से भी खतरनाक मसखरी कर सकते हो,
तुम अंधों से आकाश में टंगे बादलों के रंग पूछ सकते हो
गूंगों से गाना सुन सकते हो
बिन पैरों के लोगों की दौड़ करवा सकते हो।
दिव्यांग
तुम्हारा आत्म प्रशंसा में
अपने लिए बुदबुदाया विशेषण है,
जिसे चेप दिया है तुमने
हमारे चेहरों पर।
बंध करो यह मसखरी
यह अष्टावक्र को
सुगढ़ डील-डोल वाला कह
मुँह चिढ़ाता व्यंग्य।
याद रखना...
हमारे चेहरे
चेहरे हैं,
तुम्हारी नेम प्लेट नहीं।
--रचना काल: 15 मई 2020

