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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / आत्म बलिदान / पृष्ठ १

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उस दिन उपवन में एक वृक्ष की डाली पर,
शुक और सारिका बैठे गपशप करते थे।
चर्चित होती थी आसमान की ऊँचाई,
धरती की बातों पर वे कभी उतरते थे।

शुक बोला, मेरी जैसी चोंच कहीं देखी?
इतनी सुन्दर, कवि-जन देते हैं उपमाएँ।
सारिका छेड़ बैठी, कवियों की कौन बात-
चाहें तिनके को तीर सरीखा बतलाएँ।

केवल सुन्दर मुख होने से क्या होता है,
हों कर्म हमारे सुन्दर, तब सुन्दरता है।
यदि नहीं आत्मा में उतनी ही सुन्दरता,
तो तेज धूप-सा रूप सदैव अखरता है।

शुक बोला, रूपसि जली-भुनी क्यों बैठी हो?
कवि की वाणी से सुरभित सुमन निकलते हैं।
सारिका तुनक बोली, कवियों की भली चली-
लग जाय रूप की आँच, तुरन्त पिघलते हैं।

अपमान जाति का हुआ देख, शुक खिसियाया,
बोला, छोड़ो ये बातें, करें ज्ञान-चर्चा।
थोड़ा मुस्का कर चुटकी भरी सारिका ने,
क्यों लगी सूझने अब तुमको पूजा-अर्चा ?

शुक और सारिका की यह चहक-चुहुलबाजी,
ला नहीं सकी कोई आकर्षक रंग नया।
दो युवक वृक्ष के नीचे आकर बैठ गए,
हो गया उपस्थित बिल्कुल एक प्रसंग नया।

सारिका सहम संकेतों के स्वर में बोली,
उड़ चलें कहीं हम गपशप वहाँ लड़ाएँगे।
शुक ने संकेत किया, बैठो क्यों डरती हो?
वे हमें पकड़ कर खा थोड़े ही जाएँगे।

सारिका तनिक झुँझलाई, धीरे से बोली-
मेरी मानो, यह डाल छोड़कर उड़ जाएँ।
कुछ नहीं ठिकाना इन मर्दों की चालों का,
क्या पता, फाँस हमको पिंजड़े में लटकाएँ।

इस मीठी चुटकी का रस लेकर शुक बोला,
मर्दों पर क्यों तुम गुस्सा आज उतार रहीं?
मिल गया कौन-सा गुरु, जिसने शिक्षा दी है,
बढ़-बढ़ कर आज मनोविज्ञान बखार रहीं।

सारिका डूबते-से स्वर में शुक से बोली-
उड़ चलें कहीं हम, मेरा मन चिन्तातुर है।
कुछ अशुभ बात होती दिखलाई देती है,
कुछ आशंका से धड़क रहा मेरा उर है।

शुक बोला, नारी हो तुम, यों ही डरती हो,
शुभ और अशुभ की चिन्ता तुम्हें सताती है।
आ जाय छींक तो शकुन-अपशकुन हो जाता,
तिल भर चिन्ता को नारी ताड़ बताती है।

कह उठी सारिका, प्राप्त मुझे वरदान एक,
क्या आगम है, यह भान मुझे हो जाता है।
यदि मँडराती हो मौत किसी के सर पर तो,
उसका यथार्थ अनुमान मुझे हो जाता है।

इन दो में से यह एक गठीला नौ-जवान,
पड़ रही मौत की इसके सर पर छाया है।
मैं सोच रही, इसका भवितव्य टले कैसे,
इस अशुभ अनागत ने ही मुझे सताया है।

शुक बोल उठा, यह भेद आज मैं समझा हूँ,
क्यों शंका-आशंका से नारी मन डरता।
अपनी चिन्ता से अधिक उसे अपनों की है,
जग-जाहिर है नारी की पर-दुख-कातरता।

भवितव्य उसे तुम साफ-साफ ही बतला दो,
कह दो उससे, उठकर अन्यत्र चला जाए।
जो व्यक्ति सगा बनता, वह कभी दगा करता,
कह दो, वह अपनों द्वारा नहीं छला जाए।

कोई सचेत कर सके उसे, इसके पहले-
प्रारम्भ हुआ युवकों में बातों का क्रम था।
यद्यपि चर्चा का विषय गूढ़ ही दिखता था,
बातों में दिखता नहीं कहीं भी विभ्रम था।

सुखदेव राज! यह देश किधर जा रहा आज,
इसकी गतिविधि कुछ नहीं समझ में आती है।
हम मरें-मिटें, खप जायँ देश-हित-चिन्तन में,
पर जनता तो जी भर आनन्द मनाती है।

उसका मत है, इसका ठेका कुछ लोगों पर,
इन कामों में क्यों अपनी जान फँसाएँ हम ?
जीवन पाया है, खाएँ-पिएँ-करें मस्ती,
यौवन पाया है, झूमें-नाचें-गाएँ हम।

ये युवक कि जो भारत के भाग्य-विधाता है,
ये चकाचौंध की धाराओं में बहते हैं।
लेकर यौवन की आग माँगते ये पानी,
ये जोर जुल्म सब शीश झुकाए सहते हैं।``

सुखदेवराज बोला, "भैया आजाद! सुनो,
हम इनकी गति को मोड़ें तो कैसे मोड़ें।
इनसे कुछ आशा करना, बड़ी दुराशा है,
इसलिए उचित है, हम इनका पीछा छोड़ें।"