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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / प्रयाग बोलते फूल / पृष्ठ १

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मैं हूँ प्रयाग, जीवन पुण्यों का पुष्पित तरु,
मैं कठिन तपस्या का अभिलषित प्राप्त वर हूँ।
मैं ज्ञान-कर्म-इच्छा का शुभ्र मिलन-मन्दिर,
भारत की संस्कृतियों की रखे धरोहर हूँ।

माँ वाणी की पूजा का मैं पावन प्रसाद,
मैं अगरु, धूप-चन्दन का धूम्र सुगंधित हूँ।
मैं सत्यं-शिवम्-सुन्दरम् का साकार रूप,
मैं तीर्थराज के गौरव से अभिवन्दित हूँ।

साहित्य-कला-संस्कृति की पुण्य-त्रिवेणी मैं,
मैं जीवन के पावन प्रवाह का शुभ-संगम।
मैं वेद-पुराणों-इतिहासों का मुखरित स्वर,
मैंने उनके उपदेश किए हैं हृदयंगम।

मैं हूँ यथार्थ-आदर्श और सिद्धान्त रूप,
मैं गंगा-यमुना-सरस्वती का हूँ प्रवाह,
सागर की गहराई तो नापी जा सकती,
मेरे अन्तर की गहराई युग-युग अथाह।

यह नहीं कि केवल गंगा, युमना, सरस्वती,
मेरे आँगन में हिल-मिल कर लहराती हैं।
जीवन की जाने कितनी विषम विविधतायें,
सब मेरे घर आपस में मिलने आती हैं।

मेरी धारा का पुण्य-परस इतना पावन,
छू देते ही अस्थियाँ फूल बन जाती हैं।
प्रतिकूल हवाएँ आकर यहाँ गले मिलतीं,
बह पाने के भावों में वे सन जाती हैं।

मैं कभी रात्रि के सन्नाटे में सुनता हूँ,
तल में, वे सोए हुए फूल बतराते है,
वे कौन, कहाँ से आए, क्या-क्या करते थे,
ये सब बातें, वे सुनते और सुनाते हैं।

कोई कहता, थी लाख-करोड़ों की सम्पत्ति,
जब आया मैं, तो सभी छोड़कर आया हूँ।
कोई कहता दुनिया बिलकुल निस्सार दिखी,
मैं उस जग से सम्बन्ध तोड़कर आया हूँ।

किसनू कहता, मैं बाग-बगीचे खेत-खले,
अपने बेटे के नाम लिखा कर आया हूँ।
साहू कहता, जो कुछ था-सब धरती में था,
क्या छिपा कहाँ, मैं सभी दिखाकर आया हूँ।

यह धनीराम का कथन कि घर के आँगन में,
रुपयों के बादल आकर रोज बरसते थे।
विश्वास छोड़ दीनू कहता, मेरे बच्चे,
भूखे रहकर टुकड़ों के लिए तरसते थे।

पुनिया कहती, मैं आई तो आते-आते,
मैंने अपनी मुनिया का ब्याह रचाया था।
कर दिए हाथ पीले, मैं रिण से उरिण हुई,
बड़भागिन ने इन्दर जैसा वर पाया था।

पारो कहती, वे मेरे सिरहाने ही थे,
हौले से मेरा माथा तनिक हिलाया था।
पा सुखद परस, मैंने आँखें खोलीं, उनने,
रोते-रोते गंगाजल मुझे पिलाया था।

टूटे से स्वर में मैं इतना कह सकी, नाथ!
मैं बड़भागिन हूँ, बनी सुहागिन जाती हूँ।
मेरे बच्चों को सदा सुखी रखना प्रियतम!
तुम सुखी रहो, मैं भी यह दुआ मनाती हूँ।

सुखिया कहती, मैं जीवन भर की दुखियारी,
सुख मिला कभी, वह एक नाम का ही सुख था।
हाँ एक और सुख था, वह सचमुच ही सुख था,
वह मेरे वीर-बहादुर बेटे का मुख था।

जब चलता वह, तो जैसे धरती हिलती थी,
मेरे बेटे की गज भर चौड़ी छाती थी।
सम्पदा सिमट मेरे घर आँगन में आती,
मैं उसे देख लेती, निहाल हो जाती थी।

ज्ञानी जी, अपनी ज्ञान भरी बातें करते,
दुनिया क्या है छल है, प्रपंच है, माया है।
हम मुट्ठी बाँधे गए और खोले आए,
फूटी कौड़ी भी कोई साथ न लाया है।

जग में धन-दौलत सुत-दारा हैं सभी व्यर्थ,
मन को न शांति क्षण भर इनसे मिल पाई है।
है धर्म और धरती की सेवा कर्म जिन्हें,
वह सेवा उनकी सबसे बड़ी कमाई है।

इस भाँति स्तब्ध-सन्नाटे में, मैं उन सबकी,
सुनता रहता हूँ सुख-दुख की अगणित बातें।
कुछ पता नहीं चलता, कितना क्या समय गया,
इस तरह बीतती जाती है अगणित रातें।

हाँ, इन बातों से परे और भी बातें हैं,
जिनको मैं अपनी आँखों-देखी कह सकता।
मैं भूल नहीं पाता कुछ मस्तानी छवियाँ,
सुधियों में उनको देखे बिना न रह सकता।

साहित्य-कला-विज्ञान आदि के वैसे तो,
उद्भट ज्ञाता, विद्वान धुरन्दर रहे कई।
कुछ राजनीति के कुशल खिलाड़ी भी खेले,
कल्पना-तरंगों में भी डूबे-बहे कई।

पर जिसने अपनी छाप बहुत गहरी छोड़ी,
वह एक युवक, जैसे जलता अंगारा था।
छबि कभी-कभी वह मुझे देखने को मिलती,
मुझको उसका व्यक्तित्व बहुत ही प्यारा था।

आजाद नाम से वह सब में जाना जाता,
अँग्रेजों से तकरार वीर ने ठानी थी।
भारत-माता के बन्धन देख न पाता वह,
इसलिए भभक उट्ठी वह नई जवानी थी।

उसने अपने जैसे ही दीवानों का दल,
तैयार कर लिया था मरने मिट जाने को।
अपना जीवन रख दिया मौत के घर गिरवी,
भिड़ गया देश अपना आजाद कराने को।

वैसे उपाधियों के चश्मे से देखें तो,
व्यक्तित्व बहुत ही धुँधला उसका दिखता था।
व्यक्तित्व वीरता के चश्मे से पढ़ें अगर,
हम देखेंगे, वह रक्त-लेख ही लिखता था।

उल्टे-सीधे जो अक्षर उसने सीखे थे,
वे देश-भक्ति के गौरव-ग्रन्थ बने सारे।
जो दुर्बलता का हृदय वेध रख देते हैं,
उस भाषा के सब अक्षर ऐसे अनियारे।

उस अमर-वीर की आत्माहुति का स्वर्ण-लेख,
लिखने के पहले धैर्य जुटाना ही होगा।
अपनी साँसों पर लदा बोझ हल्का करने,
आँसू का अपना कोश लुटाना ही होगा।