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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / मीठा-मीठा दर्द / पृष्ठ १

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तुम पूछ रहे हो मुझसे वे बीती बातें,
शायद तुम मेरी दुखती नस पहचान गए।
मैं करता हूँ महसूस दर्द मीठा-मीठा,
अजनबी मुसाफिर! शायद तुम यह जान गए।

तो सुनो, एक-दो बातें और बताता हूँ,
आजाद, नहीं उसमें पंजाबी पानी था।
पर जो पानी था, वह तेजाबी पानी था,
क्या कहें खून की, वह सचमुच लासानी था।

क्या सूझ-बूझ थी उसकी कार्य-व्यवस्था में,
किसकी मजाल, जो एक नुक्स भी पा जाए।
योजना, देख लेता था वह नस-नस उसकी,
नामुमकिन क्या, जब वह अपनी पर आ जाए।

हौसला, भला उसका मुकाबिला कहाँ मिला,
जो मिले नहीं ढूँढ़े, वह विकट दिलेरी थी।
जो आँख उठा कर देख सके वह आँख कहाँ?
उसके आगे हिम्मत क्या तेरी-मेरी थी।

संकल्प, बपौती में जैसे उसने पाए,
आदर्श, स्वयं जैसे उसने अपनाए थे।
निस्वार्थ त्याग, जैसे यह उसकी आदत थी,
सच्चे नेता के गुण उसने सब पाए थे।

उस दिन, जब छेड़ा बहुत साथियों ने उसको,
गुस्से में आकर फेंक दिया अपना भोजन।
साथी बोले-अफसोस हमे, पर पंडित जी!
पैसे लेकर, यह करो दुबारा आयोजन।

आजाद कड़क कर बोला, पैसे कहाँ रखे?
ये पैसे यों ही मुफ्त नहीं आ जाते हैं।
जो कोई देता, वह अपने दल को देता,
हम भी उसको पूरा विश्वास दिलाते हैं ।

कर्त्तव्य-भार हम पर भी यह आ जाता है,
रक्खें हिसाब हम उनकी पाई-पाई का।
खाने-पीने में पैसे नहीं उड़ाएँ वे,
सम्मान करें हम दल की नेक कमाई का।

अब निराहार ही आज मुझे रहना होगा,
दल की निधि से, मैं पैसा एक नहीं लूँगा।
मेरा ही दिल, यदि मुझसे पूछेगा हिसाब,
क्या समझाऊँगा, उसको क्या उत्तर दूँगा।

हाँ अगर चाहते तुम, मैं भूखा नहीं रहूँ,
जो फेंक दिए नाली में चने, उठा लाओ।
पानी से धोकर मैं उसको ही खाऊँगा,
अन्तिम निर्णय है, मुझे नहीं तुम फुसलाओ।

झख मार, उठाए गए चने नाली में से,
वे ही उसने खाए, पानी से धो-धो कर।
अतिरिक्त एक पाई भी उसने छुई नहीं,
की नहीं खयानत उसने खुद नेता होकर।

यह देख लिया तुमने, नेता क्या होता है,
कैसे संयम से वह ईमान बचाता है।
वह अपनी लम्बी जीभ नहीं फैलाता है,
लेकर डकार, वह पैसे नहीं पचाता है।

जो कुछ मिल जाए, हड़प नही लेता है वह,
झाँसे देकर गुलछर्रे नहीं उड़ाता है।
बेरहम नहीं होता वह, माले मुफ्त देख,
काले धन पर वह लार नहीं टपकाता है।

पर जाने भी दो, एक नहीं सौ बातें है,
क्या-क्या बतलाऊँ, कैसे-कैसे समझाऊँ।
हाँ, बहक गया मैं शायद बातों-बातों में,
इसलिए लौट फिर उस किस्से पर ही आऊँ।

आजाद, बात का धनी वचन का पक्का था,
वह अगर ठान ले, टस-से-मस फिर क्या होना।
आ पडे मुसीबत भारी से भी भारी, पर
कुछ नहीं शिकायत-शिकवे, या रोना-धोना।

दुर्भाग्य देखिए, भगतसिंह को जेल मिली,
भगवतीचरण, बम फट जाने से नहीं रहे।
शासन ने पकडे बम के कई कारखाने,
इस तरह अनेकों उस दल ने आघात सहे।

आजाद, किन्तु विचलित रत्ती भर नहीं हुआ,
फिर लगा संगठन में वह पूरी ताकत से।
शासन से समझौता करने वह झुका नहीं,
वह बाज नहीं आया था कभी बगावत से।

था कौल यही, दम में दम रहते जूझूँगा,
गिन-गिन कर मैं शासन के दाँत उखाड़ूँगा।
पिंजड़ा, वह मुझको पाने मुँह धोकर रक्खे,
आजाद रहा, रहकर आजाद दहाड़ूँगा।