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चन्द्र शेखर आजाद / श्रीकृष्ण सरल / लाहौर प्यारे सपने / पृष्ठ १

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लाहौर, नगर मैं टूटे हुए सितारे-सा,
मैं ऐसा भटका, रहा ठिकाना-ठौर नहीं।
लाहौर, बिंब हूँ मैं भारत के दर्पण का,
मैं बदल गया हूँ फिर षी क्या लाहौर नहीं।

लाहौर जगह वह-मिले जहाँ दो मोड़ मुझे,
मै गलत दिशा में गलती से मुड़ आया हूँ।
लाहौर, पात मैं भारत की ही डाली का,
इस ओर हवा के झोंके से उड़ आया हूँ।

कहते हैं टूटा पात न डाली पर लगता,
क्या इस परवशता का मुझको कम खेद नहीं?
जो चाहो रख दो नाम, नाम में क्या रक्खा,
तुम राम कहो या मैं रहीम, कुछ भेद नहीं।

धरती तो अब भी वही, जहाँ मैं पहले था,
क्या आसमान टुकड़े-टुकडे हो पाया है?
है हवा एक, जो दोनों घर आती जाती,
प्रतिबन्ध किसी ने उस पर कभी लगाया है?

इस बदले हुए जमाने में भी क्या बदला,
दिल वही रहा, केवल विचार ही बदले हैं।
दुलहिन की डोली वही, वही दुलहिन भी है,
वे बदल न पाए, बस कहार ही बदले हैं।

जो पाँख-पखेरू पहले थे, वे अब भी हैं,
गाते तो वे ही गीत आज भी गाते हैं।
यदि बदल गया कुछ, ऐनक ही तो बदला है,
आँखों में अब भी वे ही सपने आते हैं।

वह अंग्रेजों का जुल्म-सितम वरपा करना,
कंधे से कंधा मिला, सभी का भिड़ जाना।
वह बलिदानों की होड़, दौड़ कुर्बानी की,
वह आजादी की जंग अनोखी छिड़ जाना।

वह शान्ति-अहिंसा की भारत-माता की जय,
वह आग क्रान्ति की, इन्कलाब का वह नारा।
लगता था, जैसे ये बादल छंट जाएंगे,
लगता था, अब हो जाएगा वारा-न्यारा।

जो कुछ मैंने वारा वह, व्यर्थ हुआ सारा,
मेरे पाँसे भी उल्टे सारे के सारे।
मैं सोच रहा था अब वारे-न्यारे होंगे,
दो भाई लड़कर किन्तु हुए न्यारे-न्यारे।

वह तीर जहर में बुझा हुआ था दुश्मन का,
कर गया काम, हम तड़पे और छटपटाए।
जब न्याय-तराजू बन्दर के हाथों में थी,
मिलना जाना क्या था, केवल आँसू पाए।

आँसू बोए, तो भेद-भाव की बेल उगी,
जब खिले फूल नफरत के, तो दुश्मनी फली।
वे राम और रहमान साथ चलते थे जो,
अब उन दोनों में आपस में तलवार चली।

जो कुछ मैंने देखा, बयान के बाहर है,
जो हुआ, हो गया वह, उसको हो जाने दो।
मत छेड़ो उन घावों को, छिड़को नमक नहीं,
दो घड़ी चैन पाऊँ, मुझको सो जाने दो।

दो घड़ी नींद गहरी लग गई अगर मेरी,
तो ये विचार फिर मुझको नहीं सताएंगे।
वे अच्छे दिन हौले-हौले फिर उभरेंगे,
आँखों में वे प्यार सपने फिर आएंगे।

फिर रासबिहारी बोस यहाँ पर आएंगे,
कर्तारसिंह को आकर गले लगाएंगे।
कर्तारसिंह ने फंदा चूम लिया यदि तो,
वे भतसिंह को वह मस्ती दे जायेंगे।

पंजाब-केसरी भगतसिंह फिर गरजेगा
हम लालाजी की हत्या का बदला लेंगे।
सुखदेव! राजगुरु! ओ आजाद बली! आओ!
हम हत्यारे को अच्छा एक सबक देंगे।

आजाद पुकारेगा, ओ भैया भगतसिंह !
मत समझ कि तू संकट में वहाँ अकेला है।
जब कभी दोस्त का गिरा पसीना धरती पर,
हँसते-हँसते आजाद जान पर खेला है।

फिर कूद-फाँद आजाद यहाँ आ धमकेगा,
आजादी के दीवाने गले मिलेंगे, फिर।
सान्डर्स, गोलियों से फिर भूना जाएगा,
उनकी पिस्तौलों से गुल कई खिलेंगे फिर।

जब चनन सिंह झपटेगा भगतसिंह पर, तो
आजाद गर्जना कर, ललकारेगा उसको।
कर सुनी-अनसुनी चननसिंह यदि फिर लपका
आजाद मौ के घाट उतारेगा उसको।

फिर लिखा मिलेगा घर-घर गली-गली में यह
लालाजी की हत्या का बदला चुका दिया।
जो सर घमंड से अकड़ कर चलता था,
थप्पड़ जड़कर उस सर को हमने झुका दिया।

छेड़ेगा मुझको भगतसिंह अफसर बनकर,
आजाद कीर्तन-मंडल एक बनाएगा।
मैं झूम उठूँगा उसकी मस्ती देख-देख,
मुझको सलाम करता-करता वह जाएगा।


मैं रुखसत दूँगा उसे खुदा हाफिज कह कर,
उसकी खुशहाली की मैं दुआ मनाऊँगा।
अपनी गर्दन को झुका देख लेने उसको,
मैं दिल पर ही उसकी तस्वीर बनाऊँगा।