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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १३

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जिसमें पड़ता रहता था।
सब स्वर्ग-सुखों का डेरा।
कैसे है उजड़ा जाता।
अब वन नन्दन-वन मेरा॥8॥

किसलिए धारा सुध-बुध खो।
है रत्न हाथ के खोती।
क्यों नहीं समुद्र-तरंगें।
अब हैं बिखेरती मोती॥9॥

क्या डूब जाएगा सचमुच।
निज तेज गँवाकर सारा।
नीचे गिरता जाता है।
क्यों मेरा भाग्य-सितारा॥10॥

मोह
(29)

किसने कैसा जादू डाला।
लोचन-हीन बन गया कैसे युगल विलोचनवाला।
किस प्रकार लग गया वचन-रचना-पटु मुख पर ताला।
क्यों कल कथन कान करते कानों को हुआ कसाला।
कैसे हरित-भूत खेती पर पड़ा अचानक पाला।
छिन्न हुई क्यों सुमति-कंठ-गत सुरुचि-सुमन की माला॥1॥

बना क्यों मन इतना मतवाला।
टपक रहा है बार-बार क्यों छिले हृदय का छाला।
पीते रहे कभी पुलकित बन सरस सुधा का प्यारेला।
आज कंठ हैं सींच न पाते पड़ा सलिल का लाला।
क्यों ऍंधिकयाला बढ़ा, छिना क्यों छिति-तल का उँजियाला।
किसने पेय मधुरतर पय में गरल तरलतम डाला॥2॥

शार्दूल-विक्रीडित
(30)

होता कम्पित था सुश जिनसे जो विश्व-आतंक थे।
थे वृन्दारक-वृन्द-वंद्य भव में जो भूति-सर्वस्व थे।
वे हैं आज कहाँ कृतान्त-मुख ही में हैं समाये सभी।
संसारी समझे, कहे, फिर क्यों संसार निस्सार है॥1॥

ता हैं पद चूमते, तरणि में है तेज मेरा भरा।
मैं हूँ विश्व-विभूति भूतपति भी है भीति से काँपता।
क्या हैं ए दिवि देव दिव्य मुझसे? मैं दिव्यता-नाथ हूँ।
मैं हूँ अन्तक का कृतान्त, मैं ही श्रीकान्त-सा कान्त हूँ॥2॥

खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, क्यों बन्द ऐसे हुए।
हा लोग जगा-जगा न, तब भी क्यों नींद है टूटती।
क्यों हैं आलस से भरे, न सुनते हैं दूसरों की कही।
खोके भी सुधिक देह गेह जन की हैं लोग क्यों सो रहे॥3॥

क्यों सोचूँ जब सोच हूँ न सकता, जाऊँ कहाँ, क्या करूँ।
काटे है कटता न बार बहुधा मैं हूँ महा ऊबता।
होती है गत रात तारक गिने, है नींद आती नहीं।
होते चेत, अचेत है चित हुआ, चिन्ता चिता है बनी॥4॥

धू-धू है जलती विपन्न करती है धूम की राशि से।
ऑंचें दे लपटें उठा हृदय में है आग बोती सदा।
देती है कर भस्म गात-सुख को, मज्जा लहू मांस को।
चेते, है जन-चेत में धधकती, है चित्त चिन्ता चिता॥5॥

पाती जो न प्रतीति प्राणपति में तो प्रीति होती नहीं।
जो होते रस-हीन तो सरसता क्यों साथ देती सदा।
जो होती उनमें नहीं सदयता होते द्रवीभूत क्यों।
जो होता उर ही न सिक्त, दृग में ऑंसू दिखाते नहीं॥6॥

लेती है वह लुभा लोभ-मन को, है मोह को मोहती।
जाती है बन कोप की सहचरी, है काम के काम की।
है पूरी करती अपूर्व कृति से वांछा अहंकार की।
कैसे तो न क प्रपंच जब है धीरे पंच-भूतात्मिका॥7॥

वे हैं भीत बलावलोक पर का, जो थे बडे ही बली।
देखे दर्पित सैन्य-व्यूह जिनका दिग्पाल थे काँपते।
वे हैं आज बचे हुए दशन के नीचे दबा दूब को।
जो तोड़ा करते दिगन्त दमके दिग्दन्ति के दंत को॥8॥

ऊँचे भाल विशाल दिव्य दृग में भ्रू-भंगिमा भूति में।
नासा-कुंचन में कपोल युग में लाली-भ होठ में।
नाना हास-विलास कंठ-रव में अन्यान्य शेषांग में।
बाला बालक चित्त की चपलता है चारुता अर्चिता॥9॥

बातें हैं उसको पसंद अपनी, क्यों दूस की सुने।
जो मैं हूँ कहता उसे न करके है भागती जी बचा।
है रूठा करती कभी झगड़ती है तान देती कभी।
थी मेरी मति तो नितान्त अचला यों चंचला क्यों हुई॥10॥

होता है पल में विकास, पल में है दृष्टि आती नहीं।
छू के है बहु जीव प्राण हरती, है नाचती नग्न हो।
कोई बात सुने सहस्र श्रवणों में है उसे डालती।
देखी है चपला समान चपला भू-दृष्टि ने क्या कहीं॥11॥

नेता हैं, पर नीति स्वार्थ-रत हैं, है कीत्तिक की कामना।
प्यारा है उनको स्वदेश, पर है बाना विदेशी बना।
वांछा है रँग जाय भारत-धारा योरोप के रंग में।
है सच्चा यदि देश-प्रेम यह तो है देश का द्रोह क्या॥12॥

है सत्कर्म-निकेत धर्म-रत है, है सत्यवक्ता सुधी।
है उच्चाशय कर्मवीर सुकृती सत्याग्रही संयमी।
है विद्या वर विज्ञता सदन, है धाता सदाचारिता।
तो होता दिवि देव जो मनुज में होती न मोहांधाता॥13॥

'मेरा' का महि में महान् पद है, 'मेरा' महामंत्र है।
देखे हैं सब राव-रंक किसका प्यारा 'हमारा' नहीं।
जादू है उनका सभी पर चला, हैं त्याग बातें सुनीं।
ऐसा मानव ही मिला न ममता-माया न मोहे जिसे॥14॥

व्यापी है विभु की विभूति भव में भू-भूति में भूत में।
तारों में, तृणपुंज में, तरणि में, राकेश में, णु में।
पाई व्यापक दिव्य दृष्टि जिसने धाता-कृपा-वृष्टि से।
पाता है वह पत्रा-पुष्प तक में सत्ता-महत्ता पता॥15॥