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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १४

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बातें क्यों करते कदापि मुँह भी तो खोल पाते नहीं।
कोई काम करें, परन्तु उनको है काम से काम क्या।
खायेंगे भर-पेट नींद-भर तो सोते रहेंगे न क्यों।
लेते हैं ऍंगड़ाइयाँ सुख मिले वे खाट हैं तोड़ते॥16॥

तो कैसे चल हाथ-पाँव सकते, चालें नहीं भूलते।
तो कैसे अंगड़ाइयाँ न अड़तीं, आती जम्हाई न क्यों।
तो वे टालमटोल क्यों न करते, हीले न क्यों ढूँढ़ते।
जो है आलस-चोर संग, श्रम से तो जी चुराते न क्यों॥17॥

थू-थू है करते विलोक रुचि को वे जो बड़े दान्त हैं।
छी-छी की ध्वनि है अजस्र पड़ती आ-आ उठे कान में।
देखे आनन को अभिज्ञ जनता है नेत्र को मूँदती।
रोती है मति, पाप-पंथ-रत को है ग्लानि होती नहीं॥18॥

पाते हैं तम में अड़ी दनुज की वक्रानना मूर्तियाँ।
होती हैं तरु के समीप निशि में नाना चुड़ैलें खड़ी।
बागों में विकटस्थलों विपिन में हैं भूत होते भरे।
है शंकामय सर्व सृष्टि बनती शंकालु शंका किये॥19॥

क्यों होवे तरु कम्पमान, लतिका म्लाना कभी क्यों बने।
क्यों वृन्दारक हो विपन्न, मलिना क्यों देवबाला लगे।
क्यों होवे अप्रफुल्ल कंज दलिता क्यों पुष्पमाला मिले।
आशंका मन को न हो, न मति को शंका क शंकिता॥20॥

है वैकुंठ-विलासिनी प्रियकरी, है कीत्तिक कान्ता समा।
हैं सारी जन-शक्तियाँ सहचरी, हैं भूतियाँ तद्गता।
है वांछा अनुगामिनी, सफलता है बुध्दिमत्तकश्रिता।
दासी है भव-ऋध्दि सत्य श्रम की, हैं सेविका सिध्दियाँ॥21॥

हैं साँसें यदि फूलती विकल हो, क्यों साँस लेने लगे।
क्यों हो आकुल हाथ-पाँव अपने ढीले क क्यों थके।
आयेगा जब कार्य, सिध्दि-पथ में पीछे हटेगा नहीं।
क्यों देखे श्रमबिन्दुपात, श्रम को क्यों त्याग देवे श्रमी॥22॥

लेते हैं यदि दून की, मत हँसो दूना कलेजा हुआ।
पृथ्वी थी वश में, परन्तु अब तो है हाथ में व्योम भी।
थे भूपाल तृणातितुच्छ अब हैं धाता विधाता स्वयं।
होंगे दो मद साथ तो न दुगुना होगा मदोन्माद क्यों॥23॥

भागेगा तम-तोम त्याग पद को, लेगी तमिस्रा बिदा।
होगी दूर कराल काल कर से दिग्व्यापिनी कालिमा।
आयेगी फिर मंद-मंद हँसती ऊषा-समा सुन्दरी।
होयेगा फिर सुप्रभात, वसुधा होगी प्रभा-मंडिता॥24॥

हो उत्पात, प्रवंचना प्रबल हो, होवें प्रपंची अड़े।
होवे आपद सामने, सफलता हो संकटों में पड़ी।
होता हो पविपात, तोप गरजें, गोले गिराती रहें।
क्यों तो धीर बने अधीर, उसकी धी क्यों तजे धीरता॥25॥

बाँधा था जिसने पयोधिक, जिसने अंभोधिक को था मथा।
पृथ्वी थी जिसने दुही, गगन में जो पक्षियों-सा उड़ी।
पाई थी जिसने अगम्य गिरि में रत्नावली-मालिका।
हा! धाता! वह आर्यजाति अब क्यों आपत्तिकयों में पड़ी॥26॥

है छाया वह जो सदैव तम में है रंग जाती दिखा।
होवे दिव्य अपूर्व, किन्तु वह तो है कल्पना मात्रा ही।
हों लालायित क्यों विलोक उसको जो हाथ आती नहीं।
है आपत्तिक यही किसे वह मिली जो स्वप्न-सम्पत्तिक है॥27॥

क्या सोचें, जब सोच हैं न सकते, है बात ही भेद की।
ऐसी है यह ग्रंथि-युक्ति, नख के खोले नहीं जो खुली।
है संसार विचित्र, चित्रा उसके वैचित्रय से हैं भ।
रोते हैं दुख को विलोक, सुख के या स्वप्न हैं देखते॥28॥

ऐसे हैं भव से अचेत, चित को है चेत होता नहीं।
होती है कम आयु नित्य, फिर भी तो हैं नहीं चौंकते।
देखा हैं करते विनाश, खुलती है ऑंख तो भी नहीं।
क्या जानें जग लोग हैं जग रहे या हैं पड़े सो रहे॥29॥

क्यों अज्ञान-महांधाकार टलता, क्यों बीत पाती तमा।
नाना पाप-प्रवृत्तिक-जात पशुता होती धारा-व्यापिनी।
द्रष्टा वैदिक मंत्र के, रचयिता भू के सदाचार के।
जो होते न जगे, न ज्योति जग में तो ज्ञान की जागती॥30॥

हैं उद्वेलित अब्धिक पैर सकती, हैं विश्व को जीतती।
लेती हैं गिरि को उठा, कुलिश को हैं पुष्प देती बना।
हैं लोकोत्तर कला-कीत्तिक-कलिता, हैं केशरी-वाहना।
हैं ता नभ से उतार सकती उत्साहिता शक्तियाँ॥31॥

रोकेगी तुझको स्वधर्म-दृढ़ता, धीरे पीट देगी तुझे।
तेरी सत्य प्रवृत्तिक पूत कर से होगी महा यातना।
होगा गर्व सदैव खर्व शुचिता की सात्तिवकी वृत्तिक से।
पावेगा फल महादर्प-तरु का ऐ पातकी पाप! तू॥32॥

होती है गतशक्ति प्राप्त प्रभुता आक्रान्त हो क्रान्ति से।
जाती है लुट दिव्य भूति, छिनता साम्राज्य है सर्वथा।
अत्याचार प्रकोप-वज्र बनता है वज्रियों के लिए।
होता है स्वयमेव खर्व पल में गर्वान्धा का गर्व भी॥33॥

तानें लें, पर ऐंठ-ऐंठ करके ताने न मारा करें।
गायें गीत, परंतु गीत अपने जी के न गाने लगें।
देते हैं यदि ताल तो मचल के देवें न ताली बजा।
वे हैं जो बनते, बनें, बिगड़ के बातें बनायें नहीं॥34॥

वे ही है हँसते न रीझ हँसना आता किसे है नहीं।
होता है कमनीय रंग उनका तो रंग हैं अन्य भी।
वे हैं कोमल, किन्तु कोमल वही माने गये हैं नहीं।
तो है भूल विलोक रूप अपना जो फूल हैं फूलते॥35॥