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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १५

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होता जो चित में न चोर, रहती तो ऑंख नीची नहीं।
होता जो मन में न मैल, दृग क्यों होते नहीं सामने।
जो टेढ़ापन चित्त में न बसता, सीधो न क्यों देखते।
जो आ के पति बीच में न पड़ती, ऑंसू न पीते कभी॥36॥

देता तो जल मैं निकाल दुखते होते नहीं हाथ जो।
तो धोता पग पूत क्यों न, लखते होते न जो दूर से।
कैसे आदर तो भला न करता है भाग्य ऐसा कहाँ।
मैं हूँ सेवक, किन्तु आज प्रभु की सेवा नहीं हो सकी॥37॥

क्यों हैं लोचन लाल रात-भर क्या मैं जागता था नहीं।
होते कम्पित क्यों न हस्त पग जो है आज जाड़ा बड़ा।
मैं हूँ हाँफ रहा, परंतु घर से हूँ दौड़ता आ रहा।
है इच्छा प्रतिशोधा की न मुझमें, मैं क्रोधा में हूँ नहीं॥38॥

काटे है कटती न रात, बकती हूँ, वेदना है बड़ी।
आशा से पथ-ओर हैं दृग लगे, क्यों देर है हो रही।
जाते हैं युग बने याम, व्यथिता हो हूँ व्यथा भोगती।
दौड़ो नाथ! बनो दयालु, दुखिता की दुर्दशा देख लो॥39॥

जी है ऊब रहा, उबार न हुआ, बाधा हुई बाधिकका।
मैं दौड़ी शत बार द्वार पर जा वांछा-विहीना बनी।
है मे मुँह से न बात कढ़ती, कैसे बताऊँ व्यथा।
ऑंखें भी पथरा गईं प्रिय पथी के पंथ को देखते॥40॥

थी जिनके बल से विशाल-विभवा संसार-सम्मानिता।
दिव्यांगा दिव-देव-भाव-भरिता लोकोत्तारा पूत-धी।
उत्कण्ठावश, हो विनम्र प्रभु से है प्रश्न मेरा यही।
पावेंगे फिर भारतीय जन क्या वे भारती भूतियाँ॥41॥

जो थोड़े उसके हितू मिल सके, वे नाम के हैं हितू।
या वे हैं अपवाद या कि उनमें है पालिसी पालिसी।
पाते हैं उसको नितान्त दलिता या दु:खिता पीड़िता।
कोई बन्धु बना न दीन जन का है दीनता दीनता॥42॥

खोया जो निज स्वर्गराज्य, दुख क्या, पाया मनोराज्य है।
कोई हो परतन्त्रा क्यों न, उनकी धी है स्वतन्त्राक बनी।
होवे संस्कृति धूल में मिल रही, वे संस्कृताधार हैं।
देखे भारत के सलज्ज सुत को निर्लज्ज लज्जा हुई॥43॥

जाती है बन सुधासिक्त वसुधा, है व्योम पाता प्रभा।
आती है अति दिव्यता प्रकृति में, है मोहती दिग्वधू।
होता है रस का प्रवाह छवि में संसार-सौन्दर्य में।
हो-हो मंजुल मन्द-मन्द उर में आनन्द-धारा बहे॥44॥

वे भू में नभ में अगम्य वन में निश्शंक हैं घूमते।
वे उत्ताकलतरंग वारिनिधिक में हैं पोत-सा पैरते।
वे हैं दुर्गम मार्ग में विहरते, हैं अग्नि में कूदते।
होते हैं अभिभूत वे न भय से, जो निर्भयों में पले॥45॥

जाते हैं बन भूत पेड़ तम में, है प्रेतगर्भा तमा।
होती है बहु भीति वक्र गति से या सर्प-फूत्कार से।
है हृत्कम्पकरी मसान अवनी है मृत्यु त्राकसात्मिका।
शंका है भय भाव भूति बनती है भीरुता भूतनी॥46॥

खोले भी खुलते नहीं नयन हैं, है चेत आता नहीं।
जो कोई हित-बात है न सुनती, है चौंकती भी नहीं।
सा यत्न हुए निरर्थ, जिसकी दुर्बोधा हैं व्याधिकयाँ।
ऐसी जाति अवश्य मृत्यु-मुख में हो मूर्छिता है पड़ी॥47॥

खोजेगी वह कौन मार्ग, उसको त्राता मिलेगा कहाँ।
रोयेगी सिर पीट-पीट उसका उध्दार होगा नहीं।
जीयेगी वह कौन यत्न करके पीके सुधा कौन-सी।
जीने दे न कृतान्त-मूर्ति बनके जो जाति ही जाति को॥48॥

ऑंखें हैं, पर देख हैं न सकती, पा कान बे-कान है।
होते आनन बात है न कढ़ती है साँस लेती नहीं।
क्यों पाते चल हाथ-पाँव जब वे निर्जीव हैं हो गये।
फूँका जीवन-मन्त्रा, किन्तु जड़ता जाती नहीं जाति की॥49॥

हो उत्तोजित भाव मध्य पथ का होता पथी ही नहीं।
जाती है बन उक्ति ओज-भरिता तेजस्विता-पूरिता।
होता स्पंदन है विशेष उर तो क्यों स्फीत होगा नहीं।
है उद्वेग हुआ सदैव करता आवेग के वेग से॥50॥

होती है व्यथिता कभी विचलिता अत्यन्त भीता कभी।
रोती है वह कभी याद करके लोकोत्तारा कीत्तिकयाँ।
पुत्रों को अवलोक है विहँसती या दग्धा होती कभी।
हो कर्तव्यविमूढ़ जाति अब तो उन्मादिनी है बनी॥51॥

होता है मन, देख जीभ चलती, जो हो, उसे खींच लूँ।
पीटूँ क्यों न उसे तुरन्त कहता है बात जो बेतुकी।
जाता है चिढ़ चित्त चाल चलते चालाक को देख के।
जो ऑंखें निकलें निकाल उनको लूँ क्यों न तत्काल मैं॥52॥

हैं संतप्त अनेक चित्त बहुश: काया महारुग्न है।
भू सा उपसर्ग व्योम तक में हैं भूरिता से भ।
पीड़ा से सुर भी बचे न भव में है द्रास भी मृत्यु भी।
सारी संसृति आधिक से मथित है, है व्याधिक-बाधावृता॥53॥

देती हैं तन को कँपा अति व्यथा, होती अनाहूत हैं।
हैं हा-हा ध्वनि का प्रसार करती, हो भूरि उत्ताकपिता।
देता है बहु कष्ट वेग उनका उत्पात-मात्राक बढ़ा।
अंधाधुंधा मचा सदैव बनती हैं व्याधिकयाँ ऑंधिकयाँ॥54॥

है काँपा करती कभी तड़पती है चोट खाती कभी।
प्राय: है वह वज्रपात सहती हो-हो महा दग्धिकता।
हो उद्वेजित अब्धिक से, बदन से है फेंकती फेन भी।
हा धाता! किस पाप से वसुमती है भूरि उत्पीड़िता॥55॥