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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ४

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दिव्यताएँ उसकी अवलोक।
दिव्यतम बनता है भव-कूप।
अपावन जन का है अवलम्ब।
परम पावन है सत्य-स्वरूप॥8॥

(12)

हँसी है कभी उड़ाती उसे।
कभी छलती है मृदु मुसकान।
कभी आँखों के कुछ संकेत।
नहीं करते उसका सम्मान॥1॥

कभी मीठी बातों का ढंग।
दिया करता है परदा डाल।
कभी चालाकी दिखला रंग।
चला करती है उससे चाल॥2॥

झमेले करती हैं उत्पन्न।
कभी लालच की लहरें लोल।
कभी रगड़े करते हैं तंग।
बनाकर उसको डाँवाडोल॥3॥

कभी जी की कसरें धुन बाँधा।
किया करती हैं टाल-मटोल।
देखकर उसका बिगड़ा रंग।
नहीं वह कुछ सकता है बोल॥4॥

धूल कितनी आँखों में झोंक।
कहीं पर बिछा कपट का जाल।
सदा ही बात बना कुछ लोग।
दिया करते हैं उसको टाल॥5॥

वैर के बो-बो करके बीज।
जो घरों में बोते हैं आग।
बहुत ही जले-भुने वे लोग।
न करते कैसे उसका त्याग॥6॥

बोलते ही रहते हैं झूठ।
बहुत लोगों की है यह बान।
जिसे वे करते नहीं पसंद।
करेंगे कैसे उसका मान॥7॥

सदा पाते रहते हैं लोग।
लोक में फल स्वकर्म-अनुरूप।
उन्हें कब नहीं मिला है दंड।
सके जो देख न सत्य-स्वरूप॥8॥

(13)

बिछाकर अलकावलि का जाल।
धाता है उसे बताता काम।
नहीं लग लगने देता-उसे।
कामिनी-कुल का रूप ललाम॥1॥

रोकता है पढ़ मोहन-मन्त्रा।
मोहनी डाल-डालकर मोह।
उसे प्राय: देता है डाँट।
दिखाकर निज दबंगपन द्रोह॥2॥

डराता है कर आँखें लाल।
उसे अभिमानी का अभिमान।
बहुत फैला अपना तमपुंज।
तमक उसको देती है तान॥3॥

पास आने देता ही नहीं।
किया करता है पथ-अवरोधा।
डाल बाधाएँ हो-हो क्रुध्द।
उसे बाधिकत करता है क्रोधा॥4॥

सामने अपने उसे विलोक।
छटकने लग जाता है क्षोभ।
दूर उसको रखने के लिए।
ललचता ही रहता है लोभ॥5॥

देखती उसे आँख-भर नहीं।
काँपती है सुन उसका नाम।
साथ में उसको लेकर चले।
कब चला लम्पटता का काम॥6॥

नहीं अभिनन्दित करता उसे।
परम निन्दित निन्दा का चाव।
मानता है उसको रिपु-तुल्य।
लोक हिंसा-प्रतिहिंसा-भाव॥7॥

बताता उसको हितकर नहीं।
नीचतम मानस-मलिन-स्वभाव।
चाहते हैं भ्रमांधा भव-मध्य।
भाव का उसके परम अभाव॥8॥

मानता मन का उसको नहीं।
जुगुप्सा - लिप्सा - कुत्साधाम।
उसे कहके लालित्य-विहीन।
स्वयं बनता है दंभ ललाम॥9॥

कभी करती है उससे मेल।
कभी बन जाती है प्रतिकूल।
पड़े निज भूल-भूलैयाँ-मध्य।
क्यों न करती प्रवंचना भूल॥10॥

भले ही हो वह भवनिधिक-पोत।
हो सकेगी क्यों उससे प्रीति।
कगी क्यों प्रिय पटुता-संग।
कुटिलता कटुता की कटु नीति॥11॥