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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - ५

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जब नहीं तिमिर सकेगी टाल।
क तब क्यों प्रकाश की साधा।
वदन क्यों उसका सके विलोक।
अधामता होती है जन्मांधा॥12॥

कगी कैसे उसे पसंद।
जो कि है परम पुण्य की मुर्ति
सदा है पापरता चित-वृत्तिक।
कुजनता है पामरता-पूत्तिक॥13॥

उलूक-प्रकृति का है दुर्भाग्य।
जो न समझे, न सके अवलोक।
दिवाकर के समान है दिव्य।
सत्य है सकल लोक-आलोक॥14॥

(14)

द्रवित हो बहुत पसीज-पसीज।
दुखित दुख-तिमिर-पुंज को टाल।
झलकती किसकी है प्रिय ज्योति।
करुण रस-धारा में सब काल॥1॥

दान कर देता है सर्वस्व।
समझकर उसे कीत्तिक-उपहार।
कहे किसके बनता है रीझ।
हृदय सहृदय का परम उदार॥2॥

दशा दयनीय जनों की देख।
सदयता को वह सका न रोक।
याद आता है किसका रूप।
दया की दयालुता अवलोक॥3॥

विविध विद्या-बल से कर दूर।
अविद्याजनित विकार-विभेद।
किस भुवन-वंदित का कर साथ।
बन सका वन्दनीय निर्वेद॥4॥

दानवी प्रकृति परम दुर्दान्त।
प्राप्त कर किससे बहु शुचि स्फूत्तिक।
बनी सहृदयता मृदुता-धाम।
सुजनता जनता-ममता-मूर्ति॥5॥

सुधा से कर मरु-उर को सिक्त।
सिता-सी फैला कोमल कान्ति।
हुए किस रजनी-पति से स्नेह।
बन सकी राका-रजनी-शान्ति॥6॥

लाभ कर ममता विश्व-जनीन।
सृजन कर भौतिक शान्ति-विधन।
मिले किसका महान अवलम्ब।
बनी मानवता महिमावन॥7॥

विलोके किसको गौरव-धाम।
गौरवित बनता है गंभीर।
देखकर किसको धर्मधुरीण।
धीरता नहीं त्यागता धीर॥8॥

बना करती है किसे विलोक।
सुमति की मूर्ति परम रमणीय।
सदाशयता सुख्याति सकान्ति।
सुकृति की कीत्तिक-कला कमनीय॥9॥

बढ़ाकर शालीनता-प्रभाव।
शिष्टता में भर भूरि उमंग।
विलसती है किसको अवलोक।
शील मानस महनीय तरंग॥10॥

नाचता है किस घन को देख।
सर्वदा सदाचार-मनमोर।
देखता है किस विधु की कान्ति।
सच्चरित बनकर चरितचकोर॥11॥

जी रही है भव-पूत विभूति।
देखकर किसके मुख की ओर।
कौन है सद्गति का सर्वस्व।
रुचिरतम सुरुचि-चित्त का चोर॥12॥

ज्ञान-विज्ञान-सहित रुचि साथ।
भावनाओं में भर अनुरक्ति।
गयी खिल देखे किसका भाव।
भुवन-भावुकता-भरिता भक्ति॥13॥

विश्व-गिरि-शिखरों पर सर्वत्र।
गड़ गयी गौरव पा अविलम्ब।
धर्म की धवजा उड़ी भव-मध्य।
मिले किसके कर का अवलम्ब॥14॥

दिव्य भावों का है आधार।
नियति का नियमनशील निजस्व।
लोक-पति का है भव्य स्वरूप।
सत्य है भव-जीवन-सर्वस्व॥15॥

(15)

अन्न दे देना भूखों को।
पिलाना प्यासे को पानी।
दीन-दुखिया-कंगालों को।
दान देना बनकर दानी॥1॥

बुरा करना न दूसरों का।
नहीं कहना लगती बातें।
सँभल सेवा उसकी करना।
न कटती हैं जिसकी रातें॥2॥