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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - २

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अवसर पर वसन बदलता।
जैसे जन है दिखलाता।
वैसे ही जीव पुरातन।
तन तज, नव तन है पाता॥5॥

जैसे मिट्टी में मिल तन।
है विविध रूप धार पाता।
तृण-लता गुल्म पादप हो।
बनता है बहु-फल-दाता॥6॥

वैसे ही निज जीवन का।
होता है वह निर्माता।
अनुकूल योनियों में जा।
है जीव कर्म-फल पाता॥7॥

है वस्तु-विनाश असम्भव।
बतलाते हैं यह बुध जन।
है दशा बदलती रहती।
है मृत्यु एक परर्वत्तान॥8॥

(4)
नैमिक्तिक
प्रलय

भले ही ऊषा आती रहे।
लिये अंजलि में सुमन अपार।
बनी अनुरंजित कर अनुराग।
वारती रवि पर मुक्ता-हार॥1॥

खग-स्वरों में भर मंजुल नाद।
सजाये अपना उज्ज्वल गात।
अरुण अरुणाभा से हो लसित।
प्रति दिवस आये दिव्य प्रभात॥2॥

गगन-मण्डल में ज्योति पसार।
जगमगायें ता छविधाम।
दिव्य नन्दनवन-सुमन-समान।
बन परम रम्य लोक अभिराम॥3॥

हरित तरु-दल से कर बहु केलि।
परसता लतिका ललित शरीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
बहे कुंजों में मंजु समीर॥4॥

भरा नगरों में रहे विनोद।
सुखों का हो बहुविध विस्तार।
बने अत्यन्त प्रफुल्ल त्रिकलोक।
विहँसता रहे सकल संसार॥5॥

ध्वनित हो समय-करों से छिड़े।
प्रकृति-तन्त्राी के अद्भुत तार।
विश्व-कानों में गूँजा क।
अलौकिकतम उसकी झंकार॥6॥

किन्तु क्या उसको, जिसका आज।
टूटता है साँसों का तार।
नहीं जो जुड़ पाता है कभी।
काल-कर का सह सबल प्रहार॥7॥

गगनचुम्बी उसके प्रासाद।
मोहते रहें, बनें छविमान।
रात में जिनके कलश विलोक।
कलानिधि भी हों मुग्ध महान॥8॥

लगाए उसके उपवन बाग।
फूल-फल लाएँ बन छविवन्त।
बढ़ाता उनकी शोभा रहे।
समय पर आकर सरस वसन्त॥9॥

स्नेह-परिपालित सकल कुटुम्ब।
प्रीति में रत पूरा परिवार।
समुन्नत हो पाए सुख भूरि।
बने बहु वैभव-पारावार॥10॥

किया जिन भावों का उपयोग।
लिया जिन मधुर रसों का स्वाद।
बनें वे उन्नत पाकर समय।
या बताए जावें अपवाद॥11॥

कलित क्रीड़ाओं के प्रिय धाम।
घूमने-फिरने के मैदान।
सुसज्जित विलसित हों सर्वदा।
या बनें प्रेत-निवासस्थान॥12॥

क्या उसे जिसकी ग्रीवा-मध्य।
अचानक पड़ा काल का फन्द।
समय के फरफन्दों में फँसे।
हो गयीं जिसकी ऑंखें बन्द॥13॥

बनेगा पाँच तत्तव की भूति।
म पर, पाँच तत्तव का गात।
ज्योति में मिल जाएगी ज्योति।
वात में मिल पाएगा वात॥14॥

व्योम में समा जाएगा व्योम।
नीर भी बन जाएगा नीर।
मृत्तिकका में होयेगा मग्न।
मृत्तिकका से संभूत शरीर॥15॥

कर्म-अनुसार लाभ कर योनि।
जीव पा जाता है तन अन्य।
किन्तु व्यक्तित्व किसी का कभी।
यों नहीं हो पाता है धान्य॥16॥