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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ३

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व्यक्ति में रहता है व्यक्तित्व।
उसी से है उसका संबंधा।
पर मिला एक बार वह कभी।
नियति का है यह गूढ़ प्रबन्धा॥17॥

पंचतन्मात्राकओं का मिलन।
लाभ कर आत्मा का संसर्ग।
प्राणियों का करता है सृजन।
पृथक होते हैं जिनके वर्ग॥18॥

वर्ग में परिचय का प्रिय कार्य।
कर सका है केवल व्यक्तित्व।
बिना व्यक्तित्व महत्तव-विकास।
व्यर्थ हो जाता है अस्तित्व॥19॥

मिल सका किसे पूर्व व्यक्तित्व।
जन्म ले-लेकर भी शत बार।
म के लिए सभी मर गया।
भले ही मरा न हो संसार॥20॥

गमन है पुनरागमन-विहीन।
भाव है सकल अभाव-निलय।
कहा जाता है भय-सर्वस्व।
मरण माना जाता है प्रलय॥21॥

(5)

जगद्विजयी उठता है काँप।
कान में पड़े काल का नाम।
मृत्यु का भीषण दृश्य विलोक।
न लेगा कौन कलेजा थाम॥1॥

यही है वह कराल यमदण्ड।
दहलता है जिससे संसार।
वार बेकार न जिसकी हुई।
यही है वह बाँकी तलवार॥2॥

यही है काली की वह जीभ।
लपलपाती अतीव विकराल।
जिसे है सृष्टि देखती सदा।
करोड़ों के लोहू से लाल॥3॥

यही है वह त्रिकनेत्र का नेत्र।
खुले जिसके होता है प्रलय।
ज्वाल से जिसके हो-हो दग्धा।
भस्म होता है विश्व-वलय॥4॥

यही है वह रण का उन्माद।
कटाए जिसने लाखों शीश।
प्रहारों से जिसके हो व्रणित।
रुधिकर-धारा में बहे क्षितीश॥5॥

यही है वह जल-प्लावन जो कि।
देश को करता है उत्सन्न।
प्राणियों का लेता है प्राण।
बनाकर उनको विपुल विपन्न॥6॥

यही है वह भारी भूकम्प।
काल का जो है महाप्रकोप।
धारा का फट जाता है हृदय।
हुए लाखों लोगों का लोप॥7॥

अयुत-फणधार का है फुफकार।
भीतिमय है भौतिक उत्पात।
मरण है वज्रपात-सन्देश।
है महा सांघातिक आघात॥8॥

सशंकित हुआ कहाँ कब कौन।
प्रलय का अवलोके भ्रू बंक।
विश्व के अन्तर में है व्याप्त।
प्रलय से अधिक मरण-आतंक॥9॥

(6)

क्षणिक जीवन के विविध विचार।
कीत्तिक-रक्षण के नाना भाव।
स्वर्ग-सुख-लाभ,नरक-आतंक।
संकटों से बचने के चाव॥1॥

कराते हैं नर से शुभ कर्म।
भिन्न होते हैं उनके रूप।
साधनाएँ होती हैं सधी।
साधाकों की रुचि के अनुरूप॥2॥

मन्दिरों के चमकीले कलश।
लगाए ह-भ बहु बाग।
सरों में उठती तरल तरंग।
सुर-यजन-पूजन का अनुराग॥3॥

भंग यदि कर पाएँ निज मौन।
तो बताएँगे वे यह बात।
सभी हैं स्वर्गलाभ के यत्न।
कीत्तिक-रक्षण इच्छा-संजात॥4॥

विरागी जन का गृह-वैराग्य।
तापसों के नाना तप-योग।
त्यागियों के कितने ही त्याग।
शान्ति-कामुक के शान्ति-प्रयोग॥5॥

विपद-निपतित का पूजा-पाठ।
विनय से भरी विपन्न पुकार।
मुक्ति से सुपथों का संधन।
मृत्युभय के ही हैं प्रतिकार॥6॥