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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ३

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आग-बगूले बने, कब नहीं।
किसके दिल में पड़े फफोले।
खिचें खिंच गयी हैं तलवारें।
बमके, चलते हैं बमगोले॥3॥

चिढ़े, सताता है वह इतना।
जिसे देखकर कौन न दहला।
ऐंठे, किससे लिया न लोहा।
दिया लहू से किसे न नहला॥4॥

बहँके, बला पर बला लाया।
कुढ़े, विपद ढाये देता है।
तमके, किसका कँपा कलेजा।
नहीं वह निकाले लेता है॥5॥

खीज, लहू पीती रहती है।
डाह, दूह लेती है पोटी।
तेवर बदले, कितनों ही की।
नुच जाती है बोटी-बोटी॥6॥

बिगड़े, बहुतों की बिगड़ी है।
अकड़े, लुटते लाखों घर हैं।
सनके, खालें है खिंच जाती।
झगड़े, कटे करोड़ों सर हैं॥7॥

रह जाती हैं, मति की बातें।
बनकर पानी पर की खा!
जब देखा तब नर के मन को।
मनमानी ही करते देखा॥8॥

(10)
स्वार्थ

कौन किसी का होता है।
स्वार्थसिध्दि के सरस खेत में प्यारे-बीज नर बोता है।
सब छूटे वह हथकंडों से हाथ भला कब धोता है।
पोत दूसरों को दे मोती अपने लिए पिरोता है।
सग से भी सग को दुख देते तनिक नहीं मन रोता है।
मोह ऍंधोरी रुचि-रजनी में सुख की नींदों सोता है।
जिससे पड़े स्वार्थ में बाधा जो वैभव को खोता है।
वह प्रिय सुत भी ऑंख फोड़नेवाला बनता तोता है।
सुख-सरवर के लिए नहीं बन पाता जो रस-सोता है।
है ऐसा उर कौन कि जिसमें काँटे नहीं चुभोता है।
हुई न परवा पर-मन को निज मन की रोटी पोता है।
निज सुख-साधा-तरंगों में पर-सुख का पोत डुबोता है।
स्वार्थ-भाव से ही उजड़ा दिव-भाव-विहंगम-खोता है।
उसके कर ने मसि मानवता रुचिर चित्रा पर पोता है॥1॥

(11)
रक्तपात

रक्तरंजित है भव-इतिहास।
रुधिकर-पान के बिना नहीं बुझ पाती है वसुधा की प्यासे।
है विकराल काल कापालिक क्रीडा-रत ले विपुल कपाल।
काली बहुत किलकिलाती है मुंडमालिनी बन सब काल।
जो शिवशंकर कहलाते हैं कार्य उन्हीं का है संहार।
शव-वाहना प्रिया है, उनका सिंह-वाहना से है प्यारे।
दुर्गा-दानव-रण में इतना हुआ रक्त-प्लावित भूअंक।
एक पिपासित खग ने गिरि पर बैठे रुधिकर पिया निश्शंक।
राम और रावण आहव में उतना हुआ न रक्त-प्रवाह।
फिर भी खग ने मेरु से उतर पूरी की थी शोणित-चाह।
कहाँ हुआ, कब हुआ, हुआ किससे, भारत-सा युध्द महान।
रक्तपान की बात क्या, विहँग सका नहीं इतना भी जान।
यद्यपि यह प्रतिपादित करता है यह कल्पित समर-प्रसंग।
अतिशय पशुता-निर्दयता-पूरित था आदिम युध्द-उमंग।
किसी अंश में विबुध विवेचक मति सकती है इसको मान।
किन्तु सत्य है यह, दानव मानव दोनों हैं एक समान।
अवसर पर दानवता करते कब मानवता हुई सशंक।
लाखों घर लुट गये, करोड़ों कटे-पिटे होते भूर बंक।
कभी राज्य-विस्तार-लालसा ले कठोर कर में करवाल।
लाख-लाख लोगों का लोहू करती है कर ऑंखें लाल।
कभी आत्म-रक्षण-निमित्त अथवा आतंक-प्रसारण-हेतु।
प्रबल प्रताप किसी का बनता है जग-जन-उत्पीड़न-केतु।
निरपराध हैं पिसे करोड़ों, अरबों दिये गये हैं भून।
अनायास नुच गये कोटिश: सुन्दर-सुन्दर खिले प्रसून।
क्यों? इसलिए कि किसी नराधाम नृप के ये थे प्यारे खेल।
अथवा किसी पिशाच-प्रकृति का चिढ़ से उठ पाया था शेल।
लाखों के लोहू से गारा बन-बन हुए हरम तैयार।
धार्मान्तर के लिए करोड़ों शिर उत, चमकी तलवार।
वैज्ञानिक बहु अस्त्रा-शस्त्रा अब जितने करते हैं उत्पात।
विधवंसक रणपोत आदि से होते हैं जितने अपघात।
वायुयान-गोला-वर्षण से होता है जो हा-हाकार।
देखे नगर-धवंसिनी तोपों की वसुधातल में भरमार।
कैसे कह सकता है कोई, दानव-युग था महादुरन्त।
सच तो यह है, दुर्जनता का होता नहीं दिखाता अंत।
अधिक सभ्य अमरीका योरप को सब लोग रहे हैं मान।
आज इन्हीं को प्राप्त हो गये हैं वसुधा के सब सम्मान।
किन्तु इन्हीं देशों में अब है सा कल-बल-छल का राज।
स्वार्थसिध्दि के रचे गये हैं नाना साधन कर बहु ब्याज।
इसीलिए रणचंडी की है वहाँ गर्जना परम प्रचंड।
होता है यह ज्ञात युध्द से कम्पित होवेगा भूखंड।
क्या है यही विधन प्रकृति का, क्या है शिव का यही स्वरूप।
क्या विकराल काल काली के तांडव का ही है यह रूप।
जो हो, किन्तु देखकर सारी घटनाएँ होता है ज्ञात।
शाक्तिवृध्दि औ स्वार्थसिध्दि का मूल मंत्र है शोणित-पात॥1॥

(12)
मतवाली ममता

मानव-ममता है मतवाली।
अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली।
अपनी ही रंगत में रँगकर रखती है मुँह-लाली।
ऐसे ढंग कहाँ वह जैसे ढंगों में है ढाली।
धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर ऑंखें डाली।
अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखीभाली।
अपनी फुलवारी की करती है वह ही रखवाली।
फूल बखे देती है औरों पर उसकी गाली।
भरी व्यंजनों से होती है उसकी परसी थाली।
कैसी ही हो, किन्तु बहुत ही है वह भोलीभाली॥1॥

(13)
बल

विश्व में है बल ही बलवान।
कौन पूछता है अबलों को, सबलों का है सकल जहान।
जल में, थल में, विशद गगन में एकछत्रा है उनका राज।
सफल सुसेवित सम्मानित है उनका उन्नत प्रबल समाज।
होते हैं विलोप पल-भर में अगणित ताराओं के ओक।
प्रभा-हीन बनता है शशधार रवि का तेज:-पुंज विलोक।
विभावरी तजती है विभुता, उज्ज्वल हो जाता है व्योम।
दिनमणि का प्रताप-बल देखे विदलित होता है तमतोम।
हुई धारा शासित सबलों से, नभ में उड़े विजय के केतु।
किसी सबल कर के द्वारा ही बाँधा गया सिन्धु में सेतु।
दुर्बल छोटे जीव बड़े सबलों के बनते हैं आहार।
दिखलाते हैं जल में थल में प्रतिदिन ऐसे दृश्य अपार।
तनबल जनबल धनबल विद्याबुध्दिबलादिक का सम्मान।
कहाँ नहीं कब हुआ, सब जगह ए ही माने गये महान।
जीवनमय है सबल पुरुष, जीवन-विहीन है निर्बल लोक।
निर्बलता है तिमिर, सबलता है वसुधातल का आलोक॥1॥