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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - ४

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(14)
अनर्थ-मूल स्वार्थ
 
स्वार्थ ही है अनर्थ का मूल।
औरों का सर्वस्व-हरण कर कब उसको होती है शूल।
तबतक सुत सुत है वनिता वनिता है उनसे है बहु प्यारे।
स्वार्थदेव का उनके द्वारा जबतक होता है सत्कार।
अन्तर पड़े चली दारा सुत की ग्रीवा पर भी तलवार।
कटी भाइयों की भी बोटी, हुई पिता पर भी है वार।
अवलोकन के लिए अन्य का दुख वह होता है जन्मांधा।
तोड़ा करता है उसका हठ-प्लावन नीति-नियम का बाँधा।
कोई कटे पिटे लुट जावे छिने किसी के मुँह का कौर।
किसी का कलेजा निकले या जाय रंक बन जन-सिरमौर।
मसल जाय लालसा किसी की, किसी शीश पर हो पविपात।
किसी लोकपूजित के उर में लगे किसी पामर की लात।
इन बातों की कुछ भी परवा उसने किसी काल में की न।
तड़प-तड़पकर कोई चाहे बने बिना पानी का मीन।
सौ परदों में छिपकर भी करता रहता है अपना काम।
अवसर पर सब सद्भावों से वह बदला करता है नाम।
छल-प्रपंच का वह पुतला है, वह पामरता की है, मूर्ति।
अधाम कौन उसके समान है, वह है सब पापों की पूत्तिक।
किन्तु जगत के प्राणिमात्रा के उर पर है उसका अधिकार।
हो असार संसार पर वही है सा सारों का सार।
बड़े-बड़े त्यागी अवलोके, देखा बहुत बड़ों का त्याग।
ऐसे मिले महाजन जिनमें हरि का था सच्चा अनुराग।
किन्तु स्वार्थ उनमें भी पाया, हाँ, बहु परवर्तित था रूप।
सरस सुधा से सिक्त हुआ था संसारी का नीरस पूप।
जीवन का सर्वस्व स्वार्थ है, बिना स्वार्थ का क्या संसार।
इसीलिए है प्राणिमात्रा पर उसका बहुत बड़ा अधिकार।
किन्तु मानवी दुर्बलता का हुआ न उससे सद्व्यवहार।
इसी हेतु वह बना हुआ है अत्याचारों का आधार।
जिसका सृजन हुआ करने को सा जीवों का उपकार।
बहुत दिनों से बना हुआ है वही अनर्थों का आगार।
प्रकृति-क्रियाएँ हैं रहस्यमय, अद्भुत है भव-पारावार।
मनुज पार पा सका न उसका यद्यपि हुआ प्रयत्न अपार।

(15)
स्वार्थपरता

स्वार्थपरता है पामरता।
यह है सत्य तो कहेंगे हम किसे कार्य-तत्परता।
नाना बाधाएँ हैं सम्मुख, भय-संकुल है धारती।
विविध असुविधाएँ आ-आकर सुविधाएँ हैं हरती।
जो उनका प्रतिकार न होगा, कार्य सिध्द क्यों होगा।
यत्न ज्ञात हो तो कोई दुख क्यों जायगा भोगा।
दुरुपयोग है बुरा सदा, है सदुपयोग उपकारी।
कुपथ त्यागकर सतत सुपथ का बने मनुज अधिकारी।
स्वार्थ रहेगा जबतक समुचित निन्द्य बनेगा कैसे।
पर न कनक-मुद्रा कहलायेंगे ताँबे के पैसे॥1॥

(16)
दानव

पापी है वह माना जाता।
कर अपकार कुपथ पर चल जो पाप-परायणता है पाता।
जो है विविध प्रपंच-विधाता जो है मूर्तिमान मायावी।
जिसकी मति है लोक-धवंसिनी, जिसका मद है शोणित-स्रोवी।
अहंभाव जिसका है यम-सा, जिसके कौशल हैं पवि-जैसे।
नीति नागिनी-सी है जिसकी उसमें है मानवता कैसे।
कौन उसे मानव मानेगा जिसे काल कहती है जनता।
दानव अन्य है न, दानवता कर मानव है दानव बनता॥1॥

(17)
नरता और पशुता

उस नरता से पशुता भली।
विधिक-विडम्बना से जो पामरता पलने में पली।
पशुता ने कब नरता की-सी टेढ़ी चालें चली।
कब उसके समान ही वह कुत्सित ढंगों में ढली।
नरता दुर्मति-ज्वालाओं में जैसी जनता जली।
उसके भय से पड़ी जनपदों में जैसी खलबली।
जैसी उसने रोकी भयभीतों की रक्षित गली।
वैसी की है कब पशुता ने, वह कब भव को खली।
नरता लाई बला लोक पर दे-दे मिसरी-डली।
पशुता से यों भोली जनता कहाँ गयी कब छली।
पशुता में वह शक्ति कहाँ, हों पास भले ही बली।
नरता-दर्पों से वसुन्धारा गयी नहीं कब दली॥1॥

(18)
जीव का जीवन जीव

जीवों का जीवन है जीव।
यह जीवन-संग्राम जगत का है कौतूहल-जनक अतीव।
जल-थल-अनल-अनिल में नभ में होता रहता है दिन-रात।
कोटि-कोटि जीवों का पल-पल कोटि-कोटि जीवों से घात।
छोटे-छोटे कीट बड़े कीटों के बनते हैं आहार।
बड़े-बड़े कीटों को खाते रहते हैं खग-वृन्द अपार।
निर्बल खग को पकड़-पकड़कर पलते हैं सब सबल सचान।
पशु-समूह में भी मिलता है विधिक का यही विचित्र विधन।
बड़ी मछलियाँ छोटी मछली को खा जाती हैं तत्काल।
बड़ी मछलियों को लेता है मकर उदर में अपने डाल।
ऐसे अद्भुत दृश्य अनेकों दिखलाता है वारिधिक-अंक।
वह सब काल बना रहता है महाकाल का प्रिय पर्यंक।
बड़े-बड़े विकराल जीव का होता है पल-भर में लोप।
उसको उदरसात करता है किसी प्रबल का महाप्रकोप।
मनुज-उदर है किसी पयोनिधिक से भी बृहत् और गम्भीर।
जिसमें समा सके हैं जग के सभी जीव धार विविध शरीर।
स्वजातीय को भी पामर नर खा जाता है सर्प-समान।
इतर प्राणियों-सा है वह भी, बने भले ही ज्ञान-निधन।
बलवानों की है वसुन्धारा, बलवानों का है संसार।
निर्बल मिटते हैं, होती है सदा सबल की जय-जयकार।
प्रकृति-नटी के रंगमंच के सकल दृश्य हैं बड़े विचित्र।
कोई नहीं समझ पाता है उसके चित्रिकत चित्रा चरित्रा॥1॥

(19)
जगत-जंजाल

हैं भव-जाल जगत-जंजाल।
भूलभुलैयाँ की-सी उसकी भूल-भरी है चाल।
नाना अवसर विविध परिस्थिति बाधाएँ विकराल।
सदा समाने ला देती हैं परम अवांछित काल।
विविध प्रकृतियों के मानव देते हैं झंझट डाल।
कोप न होगा क्यों वैरी को देख बजाते गाल।
है वह पामर जो न सके अपना सर्वस्व सँभाल।
सबसे अधिक विचारणीय है भव में भूति-सवाल।
होगा वह न अकण्टक जो पथ-कंटक सका न टाल।
वह असि-वार सहेगा जिसके पास न होगी ढाल।
विधिक-प्रपंच-कृत गरल-सुधामय है वसुधा का थाल।
जटिल क्या, जटिलतम है जग के जंजालों का हाल॥1॥